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________________ 108 कातन्त्ररूपमाला उशनस्पुरुदंसोऽनेहसां सावनन्तः // 318 // उशनस् पुरुदंशस् अनेहस् इत्येतेषामन्तोऽन् भवति सौ परे असम्बुद्धौ। उशना। उशनसौ। उशनस: / नत्रा निर्दिष्टमनित्यम्। सम्बोधने तूशनसस्त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम्। श्रीव्याघ्रभूतिप्रतितन्नमेपन्नत्रापि निर्दिष्टमनित्यमेव // 1 // हे उशन: हे उशनन्, हे उशन / हे उशनसौ / हे उशनस: / उशनसं / उशनसौ / उशनस: / उशनसा। उशनोभ्यां / उशनोभिः / इत्यादि / एवं पुरुदंशस् अनेहस् शब्दौ सम्बुद्धि विना / विद्वन्स् शब्दस्य तु भेदः / सौ-सान्तमहतो!पधाया इति दीर्घः / विद्वान् / विद्वांसौ / विद्वांस: / हे विद्वन् / हे विद्वांसौ / हे विद्वांसः / विद्वांसं / विद्वांसौ। असंबुद्ध 'सि' विभक्ति के आने पर उशनस्, पुरुदंशस् और अनेहस् शब्दों के अंत को 'अन्' हो जाता है // 318 // ____अत: उशनन् + सि हुआ। पुन: 'घुटि चासंबुद्धौ' इस १७७वें सूत्र से न् की उपधा को दीर्घ होकर “लिंगान्त नकारस्य” सूत्र से 'न्' का लोप होकर 'उशना' बना। उशनस् + औ= उशनसौ, उशनसः / न समास से निर्दिष्ट होने से यह वैकल्पिक है और श्लोकार्थ-संबोधन में उशनस् शब्द के तीन रूप बनते हैं, सकारांत, नकारान्त एवं अकारांत / ऐसा श्री व्याघभूति महोदय ने स्वीकार किया है क्योंकि यह नञ् समास के द्वारा कहा गया होने से अनित्य ही है। अत: उशनस् + सि, सि का लोप एवं स् का विसर्ग होकर हे उशन: ! अन् आदेश होकर हे उशनन् ! एवं अकारांत होकर हे उशन ! ऐसे तीन रूप बन गये। तथाहि-उशनस् उशनसौ उशनसः हे उशनः ! हे उशनन् ! हे उशन् ! हे उशनसौ ! हे उशनसः ! उशनसम् उशनसौ उशनसः / उशनसा उशनोभ्याम् उशनोभिः उशनसे उशनोभ्याम् उशनोभ्यः उशनसः उशनोभ्याम् उशनोभ्यः उशनसोः उशनसाम् उशनसि उशनःसु उशनस्सु। संबोधन के सिवाय पुरुदंशस् और अनेहस् के रूप इसी प्रकार से चलते हैं। विद्वन्स् शब्द में कुछ भेद है। विद्वन्स् + सि “सान्तमहतोनोंपधायाः” इस २८६वें सूत्र से 'न' की उपधा को दीर्घ होकर “संयोगान्तस्य लोपः” सूत्र २६०वें से स् का लोप होकर एवं व्यञ्जनाच्च सूत्र से सि का लोप होकर 'विद्वान्' बना। तत्रैव घुट विभक्ति तक न् की उपधा को दीर्घ एवं “मनोरनुस्वारो घुटि” इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार होकर विद्वन्स् + औ= विद्वान्सौ बना। उशना उशनसः उशनसोः 1. अकार: किमर्थः ? सख्युरंतः अन्भवतीत्यत्र अन्प्रयोजनम् / 2. शेषे सेवा वापररूपम्' से विकल्प से स हो गया है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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