________________ व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः 105 र: सुपि // 313 // रो रकारस्य विसर्जनीय: सुपि परे न भवति। इति निषेधः / चतुषु / इति रेफान्ताः / लकारान्तोऽप्रसिद्धः / वकारान्त: पुल्लिङ्गः सुदिशब्दः / सौ औ सौ॥३१४॥ दिवो वकारस्य औ भवति सौ परे / सुद्यौः / सुदिवौ / सुदिवः। वाम्याः // 315 // दिवो वकारस्य वा आकारो भवति अमि परे / सुद्यां, सुदिवं / सुदिवौ / सुदिव: / सुदिवा। दिव उद्व्यञ्जने // 316 // दिवो वकारस्य उत् भवति व्यञ्जने परे / सुद्युभ्यां / सुधुभिः / इत्यादि / इति वकारान्ता: / शकारान्त: . सुप् के आने पर रकार का विसर्ग नहीं होता है // 313 // अत: चतुर्षु बना। रकारांत शब्द हुए, लकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब वकारांत सुदिव् शब्द है। सुदिव्+सि . सि के आने पर दिव के वकार को औ हो जाता है // 314 // 'इवर्णो यमसवर्णे' इत्यादि सूत्र से संधि होकर 'सुद्यौः' बना। सुदिव्+अम् अम् विभक्ति के आने पर दिव के वकार को विकल्प से आकार हो जाता है।।३१५ // सुदि आ+ अम् संधि होकर = सुद्याम् / सुदिव्+ भ्याम् व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर दिव के वकार को उकार हो जाता है // 316 // अत: सुधुभ्याम् बना। सुदिव–अच्छा आकाश सुद्यौः सुदिवौ सुदिवः / सुदिवे सुधुभ्याम् सुधुभ्यः हे सुद्यौः ! हे सुदिवौ ! हे सुदिवः ! | सुदिवः सुधुभ्याम् सुधुभ्यः सुद्याम, सुदिवं सुदिवौ सुदिवः सुदिवः सुदिवोः सुदिवाम् सुदिवा सुद्युभ्याम् सुधुभिः / सुदिवि इस प्रकार से वकारांत शब्द हुए। अब शकारांत पुल्लिंग विश् शब्द है। विश+सि 'हशसछान्तेजादीनां ड:' २७१वें सूत्र से स् को ड् होकर सि का लोप और प्रथम अक्षर होकर विट् विड् बना। विश्-वैश्य विट, विड् विशौ विशः विशे विड्भ्याम् विड्भ्यः हे विट, विड् ! हे विशौ / हे विशः ! विशः विड्भ्याम् विड्भ्यः विशम् विशौ विशः विशोः विशाम् विड्भ्याम् विभिः विशि विशोः विट्सु सुदिवोः सुधुषु विशः विशा