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________________ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः 73 नाम्यन्तचतुरां वा // 248 // नाम्यन्तस्य नपुंसकलिंगस्य चत्वार् शब्दस्य च यदुक्तं कार्यं तद् वा भवति सम्बुद्धौ परे / प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणं न याति इति न्यायात्, हे वारि, हे वारे / हे वारिणी। हे वारीणि / पुनरपिवारि / वारिणी। वारीणि / वारिणा। वारिभ्याम् / वारिभिः / वारिणे / वारिभ्याम् / वारिभ्यः / वारिणः / इत्यादि / आमि। 'नामिन: स्वरे' प्राप्ते सति सामान्यविशेषयोर्विशेषो विधिर्बलवान् इति न्यायात् आमि च नुरिति नुरागमो भवति / दीर्घमामि सनौ / वारीणाम् / वारिणि / वारिणोः / वारिषु / / अस्थि दधि सक्थि अक्षिशब्दानां प्रथमाद्वितीययोर्वारिशब्दवत / अस्थि / अस्थिनी। अस्थीनि। पनरपि-अस्थि। अस्थिनी। अस्थीनि। टादौ अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनन्तष्टादौ // 249 // नपुंसकलिंगानामस्थ्यादीनामन्तोऽन् भवति टादौ स्वरे परे। अवमसंयोगादनोऽलोपोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ // 250 // नपुंसक लिंग में नाम्यन्त और चत्वार् शब्द से परे जो कार्य कहा गया है वह विकल्प से होता है // 24 // सम्बोधन में-अत: सि का लोप होकर हे वारि बना इसमें सि प्रत्यय का लोप होने से प्रत्यय लक्षण कोई कार्य नहीं होता है इस न्याय से एक बार हे वारि ! पुन: ‘संबुद्धौ च' सूत्र से इ को ए हो गया। वारि + आम् 'नामिन: स्वरे' से नु का आगम प्राप्त था किन्तु सामान्य और विशेष में विशेष विधि ही बलवान् होती है। इस न्याय से 'आमि च नुः सूत्र से नु का आगम होकर 'दीर्घ होकर वारीणाम्' बना। वारि वारिणी वारीणि / वारिणे - वारिभ्याम् वारिभ्यः हे वारि, वारे ! हे वारिणी ! हे वारीणि ! वारिणः वारिभ्याम् वारिभ्यः वारि वारिणी वारीणि वारिणः वारिणोः वारीणाम् वारिणा वारिभ्याम् वारिभिः / वारिणि वारिणोः वारिषु आगे अस्थि, सक्थि और अक्षि शब्दों में प्रथमा और द्वितीया विभक्तियों में वारि शब्द के समान है टा आदि विभक्तियों में कुछ भेद है। टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर नपुंसक लिंग में अस्थि आदि के अन्तिम 'इ' को अन् आदेश- हो जाता है // 249 // __ अत: अस्थन् + आ है। जिसमें व, म संयुक्त नहीं है ऐसे अस्थन् आदि के अकार का लोप हो जाता है अघुट स्वर के आने पर और अलुप्तवत् होता है। पूर्ववर्ण की विधि होने पर // 250 // 1. तदुक्तं च कार्य किं ? हे वारे इत्यत्र “संबुद्धौ च” इति सूत्रेण एत्वं विकल्पेन भवति // २.संयोगादेर्धट इति सस्य लोपो भवति तस्मात्कारणात् अलुप्तवदिति वचनं /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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