________________ उपाध्यायजी ने ग्रंथ के नाम के अंत में 'रहस्य' शब्द लगाया होने से 108 ग्रन्थ रचने की जो प्रतिज्ञा की थी उन में से यह एक रचना है। सब मिलाकर अद्यावधि 'रहस्य' शब्दवाली. चार ही कृतियाँ उपलब्ध हुई / न्यायसिद्धान्तमंजरी ग्रंथ के शब्दखंड की आलं चना में क्या विषय आता हैं ? उस का संक्षिप्त टिप्पण. 1. उपाध्यायजीने प्रारंभ में टीका के मंगलाचरण में बहुत सूचित कहा जाय ऐसा भगवान महावीरकी वाणी के लिए 'वेदध्वनिः' ऐमा विशेषण लगाया है। . प्रारंभ के प्रत्यक्षादि तीन खंडों पर टीका आलोचना की थी या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता, मुझे तो अंतिमखंड की 'अपूर्ण आलोचना उपलब्ध हुई वही यहाँ प्रकट की नहीं है। उस में नीचे अनुसार विषय प्रस्तुत हुए हैं। 2. शब्द को प्रमाण माना जाता है तो वह कैसे ? उसके लक्षण क्या ? उस की चर्चा करने की प्रतिज्ञा कर के “अर्थ" के शब्द मंगलार्थक हैं ऐसा बताकर शब्द क्या है. शब्दशक्ति, पदशक्ति जातिशक्ति लक्षणा आदि बातों की विस्तार से चर्चा की है। 3. वैशेषिक दार्शनिक शब्द प्रमाण को अनुमान प्रमाण के अंतर्गत मान लेते हैं लेकिन उपाध्यायजी ने जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रमाण यह एक स्वतंत्र प्रमाण है, पेसा बताकर वैशेषिक मान्यता का खंडन किया है। 4 शब्दबोध में 'शक्ति' सहकारमय कारणरुप है ऐसा प्रतिपादित करके शक्ति का, शक्ति-शान के उपायों का निरुपण किया है। 5. इस के अतिरिक्त पदशक्ति जाति में है या व्यक्ति में ? इस के लिए की हुई विचारणा / 6 पदों की शक्ति कार्यता में है / इस प्रकार का मन्तव्य रखने वाले मीमांसा दर्शनकार प्रभाकर मिश्र के मत का खंडन / . 7 शक्ति तीन प्रकार की है। अभिधा लक्षणा और व्यंजना। इन में लक्षणा नाम की शक्ति शब्द में किस तरह रही है उस के बारे में की हुई चर्चा विचारणा / ... 8 करीब 1200 प्रलोक जितनी गद्य टीकामें स्वकृत 'अलंकारचूडामणि' विवरण, 'अष्ट महस्री' विवरण, उदयनाचार्य कृत कुसुमांजलि' और स्वकृत 'नयनामृततरंगिणी'. 'विशेषावश्यकभाष्य' आदिका उल्लेख किया गया है। इस के सिवा छोटी-बड़ी अनेक बातों की चर्चा की है। इस न्याय सिद्धान्तमंजरी ग्रथ के शब्दखंड पर टीका करने की इच्छा क्यों हुई? जब विश्वनाथ भटटाचार्य कृत 'न्यायसिद्धान्त मुक्तावली' की रचना नहीं हुई तब उसका प्रचार शुरु नहीं हुआ था। उस के पहले करीब 16 वी शताब्दि के उत्तरार्ध में रचित न्याय सिद्धान्तमंजरी का (और न्याय लीलावती का बहुत प्रचार हो चुका था, और इन दोनों ग्रंथों पर भी बहुत आलोचनाएँ हुईथीं, अत: उपाध्यायजीको भी असे ग्रथ पर कुछ विशिष्ट लिखने की इच्छा हो आई और तर्क-न्याय प्रधान विभाग पर आलो. चना लिख डाली तब उपाध्यायजी की प्रतिभा कैसी बहुमुखी और भव्य होगी ?