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________________ उपाध्याययशोविजयविरचित 6. कृपण काठीयो. जिमै करी क्रोधने पिण जीत्यो. ति वारें मोहरायें क्रिपण काठीयाने मोकल्यौ. गुरू कहें वखांण सांभले , तिहां आवीने ते प्रांणीना शरीररूप गढने विर्षे प्रवेश कीधो. तिहां गुर्वादिक देशनारे विषं सात क्षेत्रना फल कहे छै / ए सात क्षेत्र कहे छे-जिनपडिमा 1, ग्यांन 2, देहरु 3, साधु 4, साध्वी 5, श्राविका 6, श्रावक 7. ए ठिकाणे वित्त वावस्वो. नरकतीयंचगति छेदी तीर्थकरगोत्र उपार्जन करे. बलदेव चक्रवति वासुदेव देवगति मनुषगति उपजावें. अतीनिरुपाधिगुण प्रगटे, अरूपी, अव्ययीभाव अक्षयगुण प्रगटें, निरावलंबी थाइं. एहवी गुरुनी देशना सांभली, घणा भव्यप्रांणी अनुकंपाई द्रव्य एकटुं करी साते खेत्रे द्रव्य खरचवा मांड्यो. एतले कृपण काठीइं जोरो कयौं रिषे नरक जातो रहस्य, (?) पछे माहोमाहें टीपणी लखवा मांडवा मांडी एतले ऊठीजाई वढवा मांड्यो. परना अवगुण काढवा मांड्या, निद्या करवा मांडी, किहां पाप लागुं ते वखांणे आव्या, पाप परो छूटस्यै अने माताने फईनई काकानें बापने प्रहां सघलांने मकर मुझे छ अनै गुरु पिण एहुन वारता नथी. जे वखांणे कोण आवस्यै लडो छो ते भणी, गुरु इम पिण कहेता नथी ते प्रांणी क्रिपण काठीयाने जोरें इम कहेवा लागो. वली गुरुनो संघनो अवगुण काढीने ऊठी जाई, पिण धर्म सांभली शके नहीं, आपणा आत्मानो धन क्रिपण काठीयो सर्व लेइ जांइ, एहनी पुकार श्री जिनराज विना कोई साभले नही, घणा लोभना प्रभावथी सागरदत्त सेठ समुद्रमें पडी मुंओ, सुभूम चक्रवर्ति समुद्र में पोतानी ऋद्धि सहित पडी मओ संजलनो लोभ दसमै गुणठाणे प्रगटी यथाख्यात चारित्र न पाम्यु, ते वास्ते अहो भव्यजीवो अतिकृपणता छांडवी ए कृपण काठीयो // 6 // 7. शोक काठीयो. वली जिमतिम करी कृपण काठियाने पिण जीत्यो एतले धर्म सांभलवा लागो, एतले मोहराजाई शोग काठीयो मोकल्यौ, ते आवी असंख्यात प्रदेसमें पइठो, गुरुपासै अनेक पुण्यवंत प्राणी आवता हुआ आप आपणा पुन्यने अनुसारे, एहवे एक स्त्री आभूषण वस्त्र पहिरी, नखसिख सूधी मोल शृङ्गार सजी, हाथने विर्षे रूपानी थाल लेई, चोखा सोपारी फल थालने विषे म्हेली, बीजी स्त्रीयां लेइ गीतगान करती थकी आचार्य गुरुना गुण गावती, उपासरामां नेउरना ठमकार, घूघरना घमकार, रमझम करती, नान्हा बालकनें पिण सिणगारी आवे छ; एतलामें पुण्यरहित प्राणीने वखांण सांभलतां निजरे आवी, एतले मोटो नीसासो नाभिकमलथी मोकल्यो, माथो
SR No.004308
Book TitleNavgranthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages320
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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