________________ 21 उपाध्यावयशोविजयविचितं ___ पूजास्थान किं कुसुमादिजीव विराधनांशई उपदेश नथी / जे मार्टि सन्दिग्धसचित्तकुसुमादिक कल्पितकुसुमादिसदृशपरिणामविशेष हणइ नहीं, इम कोइ कहइ छई, तेहनइ मति मिथ्यादृष्टिनई कुसुमाघर्चनई विशेषज अदुष्टपणु थाइ ते मार्टि अनुबंधशुद्धिं ज शुद्धि जाणवो // 39 // ___ क्षीणमोहनइं स्नातक चारित्र नथी ते संभावनारूढद्रव्याश्रवप्रतिबंधथी तो साक्षात् द्रव्याश्रवथी केवलोनइ स्नातकचारित्रनो प्रतिबंध किम न होई ? इम कोइ कहइ छई तेणि शास्त्रार्थ जाण्यो नथी, जे माटिं-द्रव्याश्रवथी अतिचार होइं तो इग्यारमइ गुणठाणि पाणि होई "णिग्गंथसिणायाणं तुल्लं इक्कं च संजमवाणं" -इति पञ्चनिर्ग्रन्थिवचनात् / 40 // [सं० 60] "द्रव्यतो भावतश्च हिंसा-हन्मीति परिणतस्य व्याधादे मंगवध(१)द्रव्यतो न भावतःईर्यासमितस्य साधोः सत्त्ववधे(२) भावतो न द्रव्यतोऽङ्गारमर्दकस्य कीटबुध्ध्याऽङ्गारमर्दने मन्दप्रकाशे, रज्जुमहिबुद्धया नतो वा(३) / न द्रव्यतो न भावतो मनोवाक्कायशुद्धस्य साधोः" / / (4) -श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ / इहां चउथा भांगानो स्वामी कोइ सयोगिकेवली कहइ छइ, 'चउत्थो सुण्णोत्ति' चूणिई कहिउं छइं, ते हिंसा स्वरूपनी अपेक्षाइं; पणि स्वामिनी अपेक्षाई नहीं, अयोगि एहनो स्वामी न घटइं, जे माटिं-योगाभावि मनोवाक्कायशुद्ध ते न कहवाई. जिम-वस्त्राभावई वस्त्रशुद्ध न कहिई, इहां उत्तर दीजई छई, चउथो भाँगो शून्य कहिओ छई, ते हिंसाव्यवहारनी अपेक्षाई. हिंसा स्वरूपनी अपेक्षाई शून्यता तो द्वितीयभंगई पणि शास्त्रसिद्ध ज उई, ते माटई-केवली नई द्रव्यवधसंपत्ति द्वितीयभंग, तेहनी असंपत्ति चउथो भंग, इम बहु भंग संभवइ, जिम निग्रंथनइ नियतस्वामी चतुर्थभंगनो ते अयोगि, जे माटि ते पणि निवृत्तिव्यापारई मनोवाक्कायशुद्ध छे तथा जलविगमइं पणि जलइं सुद्ध जिम कहिइंतिम योगविगमइ पणिं अयोगो योगशुद्ध संभवह ज. // 41 // कल्पभाष्यइ वस्त्रच्छेधिकारइं पूर्व पाइं इम कहउं छईविण्णाय आरंभमिणं सदोस, तम्हा जहा लद्धमैहिटिएज्जा। वुत्तं सएओ खलु जावजोगी, ण होउँ सो अंतकरी उ ताव // 1 // [सं० 3924] इहां द्रव्यवधसंभव निराकरिओ नथी, अनई सिद्धांतइ इम कहिउ छइ अप्येव सिध्धंतमजाणमो, तं हिंसगं भाससि जोगवंतं / दुब्वेण भावेण य संविभत्ता, चत्वारि भंगा खलु हिंसगत्ते // 1 //