________________ विचारबिन्दुः अपुनर्बन्धकस्यैवं, सम्यग्नीत्योपपद्यते / तत्तत्तन्त्रोक्तमखिलमवस्थाभेदसंश्रयात् // 1 // [सं० 251] 'तत्तत्तन्त्रोक्तकापिकसौगतादिशास्त्रप्रणीतं मुमुक्षुजनयोग्यमनुष्ठानमखिलं समस्तम्' वृत्तौ / // 10 // एणि करि-. जं किंचि वि परसमए णाभिमयं अभिमयं च जेण समए / सम्मत्ताभिमुहाणं तं खु असग्गहविणासयरं // 1 // ए एकान्त निरस्त जाणवो, जे माटिं उभयसंमत अकरणनियमादि कई पणि पतंजलिप्रमुख नइ हरिभद्रसूरि मार्गानुसारी कहिया छई, तथाहि, उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मषैः / योगविदौ, 'निरूपितं पुनयोगमा रध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिस्तपोनिधूतकल्मषैः प्रशमप्रधान तपसा क्षीणप्रायमार्गानुसारिबोधबाधकमोहमलैरिति // ---तवृत्तौ। ते मार्टि मार्गानुसारिनसारिनई विचित्रावस्थपणे सामान्यधर्मितया विशेषधर्मि मार्गानुसारिपणुं अविरुद्ध जाणवू // 11 // संगम,नयसार, अम्बडप्रमुख निश्चयथी परसमयबाह्य होइ, तेहनइंज मार्गानुसारिपणु होइ पणि पतंजलिप्रमुख तो महामिथ्यादृष्टि ज छई, इम कोइक कहई छई तेणिं हरिभद्रसूरिना ग्रन्थ जाण्या नथी, जे मार्टि योगदृष्टिसमुच्चयग्रन्थइं पतंजलिप्रमुखनई मित्रादि दृष्टि कहि छई ते माटई अपक्षपातिनइं परसमयनी क्रियाइ पणि मार्गानुसारिपणुं न टलइ, ते मध्यई, पणि निश्चय भाव जैननो ज छई इम सद्दहवें // 12 // मार्गानुसारिनई द्रव्याज्ञा एक भवांतरि भावाज्ञा पामई, तेहनई ज होई, ते संगमनयसारादिक ज, एहq कोइ कहई छइ, ते पणि मिथ्या, जे मार्टि द्रव्यस्तव भावस्तवथी बहु अन्तरइ होई 'प्रस्थकन्यायइ' नैगमनयमतानुसारि तिम द्रव्याज्ञा पणि भावाज्ञाथी बहु अन्तरई पणि संभवई // 13 // मार्गानुसारिपणुं जैननइं ज उत्कर्षथी अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त, शेष संसारीनई न होइ एहवं कोइ कई लिख्युं छई, ते मिथ्या, जे माटइ वचनप्रयोग कालव्यवहारथी अपुनबंधकादिकनि तथा निश्चयथी सम्यग्दृष्टिनिं कहिई छई तिहां कालभेद देखाडयों छै / तथाहि घणमिच्छत्तमकालो, एत्थमकालो हु होइ णायव्यो / कालो उ अपुणबंधग-पभिई धीरेहि णिदिवो // 1 //