________________ उपाध्याययशोविजयविरचितं अनाभोगमिथ्यात्व निजघर सरिखं छै तिहां वर्तत्ता जीव न मार्गगामी तथा न उन्मार्गगामी आवई, ते छांडी जैनमार्गमां आवै तो मार्गगामी कहिइ / शाक्यादिदर्शनमा आवै तो उन्मार्गगामो कहिई / अनि अभव्य ए बेहु एकैमां नहीं, ते मार्टि त्रीजा मेदमा होइ इम कोइ कहै छै ते जूटुं जे मार्टि जिनशासनमां बइ ज राशि छै / अभव्य पणि णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं / णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाइं // 1 // [ का 3, गा. 55] ए संमतिग्रंथ मध्ये 6 मिथ्यात्वस्थानक कहियां छई, ते माहिले एक स्थानकई व्यवहारराशिमध्ये आव्यई उन्मार्गगामी ज कहवाई // 4 // [ ] ववहारोणं णियमा संसारो जेसि हुज्ज उक्कोसो / तेसिं आवलियअसंख-भागसमयपुग्गलपरट्टा // 1 // [ ] ए गाथा व्याख्यान विधिशतक मध्यिं छई ते मार्टि मनंतपुद्गलपरावर्त संसारी अभव्य व्यवहारिं न कहिई इम कोइक कहै छै ते मिथ्या; जे माटि संग्रहणोवृत्तिमां कहइ छई . "एते च निगोदे वर्तमाना जीवा द्विधा-सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्च / तत्र ये सांव्यवहारिकास्ते निगोदेभ्य उद्धृत्य शेषजीवराशिमध्ये समुत्पद्यन्ते तेभ्य उद्धृत्य केचिद्भूयोऽपि निगोदमध्ये समागच्छन्ति / तत्राप्युत्कर्षत आवकालिकाऽसंख्येयभागगतसमयप्रमाणान् पुद्गलपराव तन् स्थित्वा भूयोऽपि शेषजीवेषु मध्ये समागच्छन्ति / एवं भूयोभूयः सांव्यवहारिकजीवा . गत्यागती कुर्वन्तीति" [ ] ए वचनथी वारंवार गमनागमनइ व्यवहारीनइ अनंत पुद्गलपरावर्त पणि सम्भवइ, नपुंसकवेदई उत्कर्षथी आवलिकासंख्यातपुद्वलपरावर्त कहियां छइं, ते निरंतरपणानि उत्कर्षइ मेलविहं / कोइक कहस्यइ जे वारंवार भ्रमणई असंख्यातनुं असंख्यातपणुं ज आवइं पणि अनंतपणुं नावई 1 तेहनई कहिइं-तो ग्रंथांतरि अनंतपुद्गल कहिया ते किम मिलै / जे मार्टि-- "एवं विकलेन्द्रियेषु गतागतैरनन्तपुद्गलपरावर्त्तान् निरुद्धोऽतिदुःखित" [ ] इत्यादिक 'भुवनभानुकेवलिचरित्रमध्ये महाप्रबंधई कहिउँ छई / तथा अनादिरेष संसारो, नानागतिसमाश्रयः। पुद्गलानां परावर्ता अत्रानन्तास्तथा मताः // [74]