________________ श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / न्यायविशारद-न्यायाचार्योपाध्याययशोविजयविरचितं विचारबिन्दुः। [ धर्मपरीक्षाग्रन्थस्य वार्तिकम् ] ॥एँ नमः। ऐन्द्र श्रेणिनतं नत्वा जिनं तत्त्वार्थदेशिनम् / कुर्वे धर्मपरीक्षार्थे लेशोद्देशेन वार्तिकम् // 1 // कोइक कहै छै जे उत्सूत्रभाषोनि अनंतज संसार होइ ए निर्धार न घटै जे माटिं "जे णं तित्थंकरादीणं महतिं आसायणं कुजा से णं अज्झवसायं पडुच्च जाव णं अणंतसंसारियत्तणं लभिज्जा" [ ] ए महानिशीथ सूत्रनि वचन उत्सूत्र भाषण पणि मोटी आशातनाज छै / तथा छट्ठई अंगि कालीदेवो प्रमुखनि- 'अहाछंद अहाछंदविहारिणीओ" एहवं कहिउँ है अनि यथाछंदपणु ते उत्सूत्र भाषिज होइ, जे माटे आवश्यकमध्ये कहिउँ छै:... उस्मुत्तमायरंतो उस्मुत्तं चेव पण्णवेमाणो / एसो उ अहाछंदो इच्छा छंदो य एगट्ठा // [ ] अनि तेहनि तो एक भवांतरि मोक्षगामिपणुं कहिउं छई ए विचारवं / . . हवै कोइक इम कहस्यै जे यथाछंदानि नियत उत्सूत्रभाषण न होइ ते जुमा जुमा उत्सूत्रभाषै अनि मतिनि नियत उत्सूत्रभाषण होइ ते मार्टि मतिनिं ते अनंतज संसार / यथाछंदानि निर्धार न होइ ते जूठू, जे माटिं-अनियत हिंसादिक दोषनी परि अनियत उत्सूत्रभाषणिं संसारनी न्यूनता शास्त्रि कहो नथी अनि इहां युक्ति पणि नथी, इणि करिई उम्मरग़मग्गसंपट्टियाण साहण गोयमा ! नूनं / संसारो अ अणंतो होइ सम्मग्गनासीणं // [गा० 31] __ ए गच्छाचारपयन्नानी गाथाथी निर्धार लेखवै छै ते न घटे, जे मार्टि उन्मार्गगामी यथाछंदो पणि कहिई / तथा नेमिचरित्रमध्ये निर्मिता द्वारकाऽस्माभिः संहृता च यियासुभिः / . कर्ता हर्ता च नान्योऽस्ति, स्वर्गदोऽप्ययमेव च (1) // [ ] वि. बि. 1