________________ चरितम् ] ... लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् / / [ 11 माया। गङ्गातटे जटावन्तः शटितत्रुटितारसम् / पत्रं फलं वा यत् शुष्कं तदाहारं वितेनिरे // 164 // नमिर्विनमिनामा च भरतस्यावहेलनाम् / कृत्वा पित्रोस्तदादेशात् सिषेवाते जिनेश्वरम् // 165 // समीकृत्य भुवं सिक्त्वा जलेन कुसुमै ताम् / त्रिसन्ध्यं प्रणतौ राज्यभागं दत्तेति चोचतुः // 166 // कालेन कियता तत्राऽऽगतो धरणनागराट् / भगवद्भक्तिसंतुष्टो ददौ विद्याधरश्रियम् // 167 // गौर्यादयोऽष्टचत्वारिंशत् सहस्रमितास्तदा / ददौ विद्या यातमितो वैताढये स्थितिकारिणौ // 168 // याभ्यामष्टविकायेषु पश्चाशनगराणि च / रथनुपूरचक्राख्यमुख्यानि परिरेजिरे // 169 // उदीच्यां षष्टि नगराण्यासन् गगनवल्लभम् / तेषु मुख्य पण्डकादिवंशालयनिकाययुक् // 17 // याम्यां नमिश्चोत्तरस्यां विनमी राज्यशालिनौ / मुखेन खेचराधीशौ वैताढ्याद्रौ समूषतुः // 171 // भगवान् विहरन् लोके भूषणायेनिमन्त्र्यते / स्वर्णमौक्तिकमाणिक्येनाऽऽदत्त किश्चनाऽप्ययम् // 172 // कुरुक्षेत्रागमं शम्भोः राज्ञा सोभप्रभेण च / श्रेयांसेन मन्त्रिणाऽपि दृष्टाः स्वप्ना अनुक्रमात् // 173 // महात्मा रिपुभिः सार्द्ध युध्यमानो जयं दधौ / श्रेयांससन्निधेर्मेरुः श्यामो धौतोऽमृतेन सः // 174 // सूर्यविम्बात् पतद्रोचिःसहस्रं श्रेयसा धृतम् / त्रिभिः सभायां सम्भूय लाभः श्रेयसि निश्चितः // 175 // श्रेयांसः स्वगवाक्षस्थः स्वामिनं वीक्ष्य चाऽस्मरत् / प्राग्भवं च्यवतो जातः सारथिश्चक्रिणोऽस्य वै // 176 // दीक्षाऽप्यात्ताऽमुना साकं वज्रसेनाऽर्हताऽप्यहम् / निर्दिष्टो वज्रनाभस्तु भावी भरतस्तीर्थकृत् // 177 // मत्वैवं सहसोत्थायेक्षुरसं प्राभृतीकृतम् / ... गृहाण भिक्षां ते योग्यामित्युक्त्वाऽकारयद्भुजिम् // 178 //