________________ परिशिष्ट 1 लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् [ 343 / - 'श्रमण' मासिकान्तर्गत लेखकोटिशिला तोर्थका भौगोलिक अभिज्ञान -डॉ० कस्तूरचन्द जैन जैन दर्शन और तत्त्वज्ञानकी भक्तिपरक अभिव्यक्ति निर्वाणक्षेत्रकी पूजा-परम्परामें दिखाई देती है। निर्वाण-क्षेत्र वे स्थल हैं, जहाँसे तीर्थकरों और सिद्धोंको निर्वाण प्राप्त हुआ है। इन्हें हम सिद्धक्षेत्र भी कहते हैं। ये सिद्धक्षेत्र ही जैन परम्पराके वास्तविक तीर्थ हैं। अष्टापद, चम्पापुरी, उर्जयन्त, पावापुरी और सम्मेतशिखर-ये पाँच स्थान चौवीस तीर्थकरोंके निर्वाण-स्थल हैं तथा आर्यखण्डके अगणित सिद्धोंकी सिद्ध भूमियोंका अन्तर्भाव "कोटिशिला "में होता है। कोटिशिला केवल एक प्रतीक सत्ता है अथवा अन्य सिद्धक्षेत्रोंकी भाँति उसकी अपनी कोई भौगोलिक पहचान है-यह प्रश्न शताब्दियोंसे अब तक अनुत्तरित ही रहा है। "अभिधानराजेन्द्र में गंगा, सिन्धु, वैताढय आदि शाश्वत पदार्थोंकी तरह कोटिशिलाको शाश्वत कहा गया है। भरतक्षेत्रमें हिमालयसे निकलकर गङ्गा और सिन्धु नदियाँ, पूर्व और पश्चिममें समुद्रकी ओर बहती हैं। मध्यमें वैताढय, विजया अथवा विन्ध्य पर्वत है। गंगा, सिन्धु और विन्ध्यके द्वारा भरतक्षेत्रके छह खण्ड हो गये हैं। दुषमा-सुषमा नामक चौथे कालमें, भरतक्षेत्रमें 63 शलाकापुरुष हुए, जिनमें 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 2. वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं। सोलहवें तीर्थङ्कर शान्तिनाथसे लेकर इक्कीसवें तीर्थङ्कर नमिनाथ तक छह तीर्थङ्करोंके तीर्थकालमें करोड़ों मुनि कोटिशिलासे मुक्त हुए हैं। त्रिपृष्ठ आदि नव वासुदेव क्रमश: श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत और नेमिनाथके तीर्थकालमें हुए थे और उन सबने अपने बाहुबलकी परीक्षाके लिये कोटिशिलाको ऊपर उठानेका उपक्रम किया था। अन्तिम नारायण कृष्णने कोटिशिलाको भूमिसे चार अंगुल तक ऊपर उठाया था। . पुराणेतिहासमें कोटिशिला भरतक्षेत्रके मध्यमें उसी प्रकार परिकल्पित है, जैसे जम्बूद्वीपके मध्यमें मेरुकी रचना मानी गई है। मन्दार पर मेरुकी भांति वैताढय पर कोटिशिला सुशोभित है। जैसे ऋषभशैल चक्रवर्तीयोंका मान-मर्दन करता है, वैसे ही कोटिशिला अर्धचक्री वासुदेवोंकी शक्तिका निकष बनती है। मेरु, ऋषभ और वैताढय ही जैन भक्ति-साधना और वास्तुविधानके प्रारम्भिक आश्रय स्थल रहे हैं, जहाँ गुफारूपी * अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, शासकीय तिलक महाविद्यालय कटनी, (म० प्र०)