________________ 344 ] महोपाध्यायश्रीमन्मेघविजयविरचितम् [ परिशिष्ट अकृत्रिम चैत्यालय अनन्त कालसे विद्यमान हैं / वैताढयके सिद्धकूट पर दिव्य जिनभवनोंका आयाम एक कोश माना गया है और इसलिये दिव्य जिनसदनके रूपमें शाश्वत कोटिशिलाका विस्तार एक कोश अथवा एक योजन ही परिकल्पित है। उपर्युक्त विवरणसे यह तो स्पष्ट है कि कोटिशिलाकी भौगोलिक अवधारणा पर अति प्राचीनकालसे विश्वास चला आ रहा है / प्राकृत निर्वाणकाण्डके अनुसार कोटिशिला कलिंगदेशमें अवस्थित है, जबकि विविधतीर्थकल्पका लेखक मगधमें इसकी संदेहपूर्ण उपस्थितिका संकेत देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोलहवेंसे इक्कीसवें तीर्थङ्करोंके जन्म स्थान मगधक्षेत्रसे सम्बद्ध होनेके कारण कोटिशिलाकी परिकल्पना मगधमें कर ली गई। इसी प्रकार नवनारायणोंके कथानकने कोटिशिलाको कलिंग देशमें प्रतिष्ठित किया, क्योंकि प्रथम नारायण त्रिपृष्ठका सम्बन्ध पोदनपुर (कलिंग )से था। प्राचीन सन्दर्भोमें मगध और कलिंग गतिशील देशवाचक संज्ञायें रही हैं और इनके आधार पर आज किसी निश्चित स्थानको कोटिशिलाकी संज्ञा नहीं दी जा सकती। सच तो यह है कि शाश्वत कोटिशिला अनन्त नामरूपोंमें अवतरित होती रही है और सिद्धक्षेत्रोंकी परवर्ती विकासपरम्पराने अब उसके भौगोलिक अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। .. प्रश्न यह है कि कोटिशिलातीर्थ क्या सचमुच विलप्त हो चुका है ? उत्तर हैनहीं। अनादि लोक परम्परा उसे आज तक कोटि पहाड़के रूपमें जीवित रखे हुए हैं। कोटि पहाड़ पर अवस्थित 'सिद्धगुफा' “टाठीबेर” नामक स्थल आज भी बुन्देलखण्ड में जनजनकी श्रद्धाका आश्रय बने हुए हैं और ये भग्न शाश्वत कोटिशिलाके वास्तविक उत्तराधिकारी हैं / भौगोलिक मानचित्र पर "कोटिपहाड़" 79015 पूर्वी और 24deg35' उत्तरी भूरेखाओं पर अवस्थित है। वर्तमान बड़ागाँवसे प्रारम्भ होकर उत्तरकी ओर भदौरा तक लगभग 4 कि. मी.की यह पर्वत श्रृंखला समुद्र सतहसे 1313 फीट ऊँची है। वड़ागांवके दक्षिणमें यह पर्वत श्रृंखला दशार्ण नदीके मुहाने तक जाकर विलुप्त हो जाती है। कोटि पहाड़ पर अनेक प्राचीन जैन मन्दिर गुफायें, चरणचिह्न और पुरावशेष सुरक्षित हैं, जो अनायास ही उसे कोटितीर्थ घोषित करते हैं। आज यह तीर्थ " बड़ागाँव सिद्धक्षेत्र" के रूपमें पुनर्प्रतिष्ठित हो रहा है। प्राचीन जैन तीर्थोके मानचित्र पर इसके उत्तर-पूर्व में खजुराहो, उत्तर-पश्चिममें अहार और चन्देरी, दक्षिण-पूर्व में रेशदीगिरि तथा कुण्डलपुर और दक्षिण-पश्चिममें विदिशा तथा ग्यारसपुर तीर्थक्षेत्र अवस्थित हैं। “कोटिशिलातीर्थकल्प "में आचार्य जिनप्रभसरिने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंके इस मतको उद्धृत किया है कि कोटिशिला " दसन्नपव्यय समीवि" अर्थात् दशार्ण पर्वतके