________________ 142 / महोपाध्यायश्रीमन्मेघविजयविरचितम् [ श्रीपद्म-. प्रायोजि मन्त्रतन्त्रादि वालिना द्वेषशालिना / विमानस्खलने हेतुर्नान्यः कश्चिन्निरीक्ष्यते // 135 // तदुत्पाठ्य गिरिं मूलात् क्षिपाम्येनं महार्णवे / वीर्याद् विदार्य क्ष्मां शैलतले दशाननोऽविशत् // 136 // मत्वाऽवधिज्ञानबलाच्छैलं चलमलं मुनिः / रक्षायै तीर्थचैत्यानां स्थिरीचक्रे क्रमाङ्गुलम् // 137 // तदाङ्गुष्ठदृढन्यासाद् गिरिव्यासोऽपि दुर्वहः / अभितः सङ्कुचद्गात्रो दशास्यो वान्तवानसृक् // 138 // अरावीद्रावयन्नुर्वी स दशास्योऽपि रावणः / ख्यातो नत्वा मुनि स्वागः क्षामयामास दासवत् // 139 / / चन्द्रहासादिशस्त्राणि मुक्त्वा दूरे दशाननः / सान्तःपुरः स्फुरत्पूजां जिनानां विदधेऽष्टधा // 140 // तौर्यत्रिके जायमाने तन्त्र्यास्त्रुटनसम्भवे / / समाकृष्य स्नसामूरोस्तन्त्री कृत्वौपवीणयत् // 141 // अबध्नात् तीर्थकृन्नाम कर्म तेनाऽतिभक्तिभाक् / रावणः पन्नगेन्द्रेण प्रोक्तो वृणु वरं सखे ! // 142 // . अमोघविजयां शक्ति तस्मै दत्त्वा तिरोदधे / __ पन्नगेशस्त्रिकूटेशो नित्यालोकपुरं ययौ // 143 // रत्नावली तत्र महैः परिणीय ययौ पुरे / लङ्कायां दशकण्ठोऽपि वैकुण्ठाकुण्ठशासनः // 144 // वाली शालीनताशाली क्षिप्त्वा कर्माणि केवलम् / ज्ञानमासाद्य सद्योऽभूत् सिद्धानन्त चतुष्टयः // 145 // ज्योतिःपुरेशज्वलनशिखस्य श्रीमती प्रिया / तारेति तस्सुतां वीक्ष्य चक्राङ्कस्य सुतोऽरजत् // 146 // नाम्नाऽयं साहसगतिः ययाचे ज्वलनश्च ताम् / सुग्रीवोऽपि ततो देया क्वेति चिन्तां पिता न्यधात् // 147 //