________________ प्रकाशकीय केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी के द्वारा प्रकाशित हो रही कालचक्र तन्त्र की विमलप्रभा टीका के द्वितीय भाग को बौद्ध तन्त्रों के अनुरागी विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस टीका के प्रथम भाग का समालोचनात्मक सम्पादन स्वर्गीय प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय जी ने किया था। उन्होंने बौद्ध तन्त्र-ग्रन्थों का सम्पादन एवं प्रकाशन करने की महत्त्वपूर्ण योजना का संकल्प लिया था। नेहरु फैलोशिप मिलने के साथ ही उन्होंने अपने इस पवित्र संकल्प को मूर्त रूप देना प्रारंभ कर दिया और फैलोशिप में मिलने वाली अधिकांश धनराशि का सदुपयोग उन्होंने बौद्ध तन्त्र-ग्रन्थों के हस्तलेखों को जुटाने में किया। इसके साथ ही उन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के सरस्वती भवन पुस्तकालय में तथा केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के पुस्तकालय में भी विविध रूपों में पाण्डुलिपियों के संग्रह में महनीय सहयोग किया। इसी के परिणाम स्वरूप दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थ शोध योजना को अन्ततः केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति मिली और इस योजना का प्रारंभ प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय जी के सजग निदेशकत्व में 1985 में हुआ। दुर्भाग्य से विमलप्रभा के प्रथम भाग का और 'धीः' पत्रिका के प्रथम विशिष्ट अंक का प्रकाशन होने के कुछ ही दिनों बाद प्रो० उपाध्याय जी का असामयिक देहावसान हो गया। उनके इस आकस्मिक निधन से दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थ शोध योजना की प्रगति पर दारुण आघात हआ। इस स्थिति में उनके सहयोगी और योजना के उपनिदेशक प्रो. व्रजवल्लभ द्विवेदी और अन्य सदस्यों ने इस योजना का कार्य बड़ी दृढ़ता से चलाया और गत सात वर्षों में बौद्ध तन्त्रों के कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रन्थों का प्रकाशन हुआ। 'धीः' पत्रिका के भी निरन्तर निश्चित समय पर प्रतिवर्ष दो अंक निकलते रहे / इतना सब होते हुए भी विमलप्रभा के शेष भाग के सम्पादन में काफी समय लग गया। विज्ञ पाठक जानते ही हैं कि ग्रन्थ के प्रथम भाग में प्रथम और द्वितीय पटल का प्रकाशन हुआ था। अब इस द्वितीय भाग में तृतीय और चतुर्थ पटल को विमलप्रभा के साथ उसी पद्धति से सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। कालचक्र तन्त्र और उसकी विमलप्रभा टीका का यह संस्करण छः हस्तलेखों और भोट अनुवाद की सहायता से तैयार किया गया है। इन सबका परिचय प्रथम भाग की अंग्रेजी प्रस्तावना में दिया जा चुका है। सन् 1985 में मूल कालचक्र तन्त्र का डॉ. विश्वनाथ बनर्जी के द्वारा सम्पादित संस्करण कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। मूल श्लोकों के परिष्कार के लिये इससे भी सहायता ली गई है। हम उन सभी