________________ गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी तथा चतुर्भुजदास महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रसंगानुसार संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा। वैसे इनके जीवन चरित्र पर अनेक विद्वानों ने शोधपूर्वक, सविस्तार प्रकाश डाला है परन्तु यहाँ संक्षिप्त रूप से निरूपित करना अप्रासंगिक नहीं होगा। (1) सूरदास : हिन्दी की कृष्ण-भक्ति-काव्य-परम्परा में सूरदास का मूर्धन्य स्थान है। इनका जीवनवृत्त, उनकी कृतियाँ एवं बाह्य-साक्ष्य भक्तमाला (नाभादास), चौरासी वैष्णव की वार्ता (गोकुलदास), वल्लभदिविजय (यदुनाथ) तथा "निजवार्ता" के आधार पर लिया गया है। इन्होंने वल्लभाचार्य से शिष्यत्व ग्रहण किया था। इनका मुख्य विषय कृष्ण-भक्ति था। श्रीमद् भागवत पुराण को उपजीव्य मानकर इन्होंने राधाकृष्ण की लीलाओं का वर्णन अपनी कृतियों में किया है। श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का सर्वाधिक वर्णन के उपरान्त इनके दैन्य के पद भी उच्चकोटि के हैं। सूर का भावचित्रण एवं वात्सल्य-निरूपण अद्वितीय है। इनकी रचना, पद-रचना है। इन्होंने अपने काव्य में सर्वप्रथम ब्रजभाषा को अपनाकर गौरवमण्डित किया है। इनकी भक्ति पुष्टिमार्गी भक्ति है। इन्होंने भक्ति के एकादश स्वरूपों का वर्णन किया है। हम यहाँ महाकवि सूर के सम्बन्ध में सविस्तार चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि अगले परिच्छेद में इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की सविस्तार समीक्षा करनी है। लेकिन सूरदास वात्सल्य-भक्ति एवं शृंगार के अद्वितीय कवि थे। गोस्वामी विठ्ठलनाथ रचित अष्टछाप में वे अपना प्रमुख स्थान रखते थे। (2) कुम्भनदास : इनका जीवन काल "चौरासी वैष्णव की वार्ता" के अनुसार ई०सं० 1468 से 1583 तक माना जाता है। ईसवी सन् 1492 में इन्होंने वल्लभाचार्य से दीक्षा ग्रहण की थी। इनकी कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं होती, लेकिन इनके कुछ पद राग-कल्पद्रुम, राग-रत्नाकर, वर्षोत्सव, कीर्तन-वसन्त, धमार-कीर्तन में संकलित मिलते हैं। वल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी के मन्दिर में प्रथम कीर्तनकार के रूप में कुम्भनदास को नियुक्त किया था। ये नित्य नये पद गाकर श्रीनाथजी की सेवा-अर्चना करते थे। आगे चलकर विठ्ठलनाथ ने कुम्भनदास व उनके पुत्र चतुर्भुजदास दोनों को अष्टछाप में लिया था। कांकरोली से प्रकाशित पुस्तक में इनके 401 पद संग्रहित हैं। कुम्भनदास की रचनाओं में साहित्यिक सौष्ठव उतना नहीं, जितना संगीत और लय का सौन्दर्य है। इनमें कवित्व की दृष्टि से विशिष्ट मौलिकता न होने पर भी इनकी संगीतज्ञता प्रसिद्ध रही है। इन्होंने बाल-लीला की अपेक्षा युगललीला के पदों का सर्वाधिक गान किया है। इसके सम्बन्ध में एक उल्लेख द्रष्टव्य है-"सो कुम्भनदास सगरे कीर्तन युगल स्वरूप सम्बन्धी कीजै। सो बधाई पलना बाललीला गाई नहीं। 82