________________ (4) श्री कृष्ण का बालरूप ही उपास्य है इसके साथ माधुर्य भाव से प्रेरित राधा-कृष्ण का युगल रूप भी उपास्य है। (5) भक्ति के दो प्रकार हैं-(१) मर्यादा-भक्ति (2) पुष्टि-भक्ति साधन सापेक्ष मर्यादा भक्ति है और साधन निरपेक्ष भक्ति पुष्टि-भक्ति है। यह भगवान् के अनुग्रह पर ही आधारित है। अपनी लीला के लिए भगवान् सृष्टि की रचना करते हैं। (6) पुष्टि के चार रूप हैं—(क) प्रवाह पुष्टि अर्थात् संसार के मध्य ही भक्ति करना (ख) मर्यादा पुष्टि-संसार से आकर्षित रहकर कृष्ण का गुणगान करना (ग) पुष्टिपुष्टि-कृष्ण के अनुग्रह से प्राप्त भक्ति (घ) शुद्धि-पुष्टि केवल प्रेम के अनुग्रह के आधार पर कृष्ण का अनुग्रहण प्राप्त करना। 6 / / ___ आचार्य वल्लभ ने शुद्धाद्वैत तथा पुष्टिमार्ग को लेकर कई ग्रन्थ लिखे हैं, जो षोडश ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने कृष्ण को परब्रह्म माना है तथा उनके अनुग्रह को प्राप्त करने को कहा है। वल्लभाचार्य के गौ-लोकवास पश्चात् क्रमशः उनके दो पुत्रों ने गोपीनाथ तथा विट्ठलनाथ ने इस मत का प्रसार-प्रचार किया। विट्ठलनाथ ने तो कृष्णभक्त आठ प्रमुख कवियों को सम्मलित कर अष्टछाप की स्थापना की जो हिन्दी साहित्याकाश में मार्तण्ड की भाँति जाज्वल्यमान है। ये आठ कवि थे—कुम्भनदास, सूरदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी; चतुर्भुजदास तथा नन्ददास इनकी सविस्तार चर्चा हम हिन्दी के 'कृष्णभक्त-कवि' शीर्षक में करेंगे। विट्ठलनाथ के निधन के पश्चात् यह . सम्प्रदाय विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया तथा छिन्न-भिन्न होकर प्रभावहीन बन गया। . कृष्ण भक्ति परम्परा में "राधावल्लभी" सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोस्वामी हितहरिवंश भी प्रसिद्ध है। ये पहले माध्व सम्प्रदाय के अनुयायी थे परन्तु एक बार राधा ने इन्हें स्वप्न में एक मन्त्र दिया और इससे प्रेरणा पाकर इन्होंने एक नये सम्प्रदाय की स्थापना की। इस सम्प्रदाय में कृष्ण की अपेक्षा राधा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इन्होंने संवत् 1582 में वृन्दावन में राधावल्लभ की युगलमूर्ति की स्थापना कर वहीं विरक्तं भाव से रहने लगे। इस प्रकार अपनी साधना का केन्द्र वृन्दावन ही बनाया। राधावल्लभ सम्प्रदाय में विधि-निषेध का त्याग तथा अनन्य हास्य मिलता है। दार्शनिक दृष्टि से इसे सिद्धाद्वैत-सम्प्रदाय कहते हैं। इस सम्प्रदाय में कई भक्त कवि हुए हैं, जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा। - स्वामी हितहरिवंश की भाँति श्री हरिदासी को सखी-सम्प्रदाय या टट्टी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। ये प्रसिद्ध गायनाचार्य थे। इन्होंने चैतन्यमत के बहुत से सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। परन्तु, आगे चलकर इनके सम्प्रदाय में सखी भाव की