________________ महाकवि हैं जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती परम्परा से भावों को बिन्दुमात्र ग्रहण किया, परन्तु अपनी मौलिक प्रतिभा से सिन्धु का सा असीमित विस्तार एवं गम्भीर्य प्रदान किया। परवर्ती परम्परा को तो उन्होंने बहुत दूर तक प्रकाश प्रदान किया है। भक्तिकाल या रीतिकाल ही नहीं वरन् आधुनिक काल तक की अद्यतन काव्य चेतना के विविध स्तरों पर सूर काव्य के प्रभाव-चित्र चित्रित हैं। युग-युग तक साहित्य को अनुभूति एवं कला के इतने गहरे स्तर पर प्रभावित करने वाला कवि सूर के अतिरिक्त कोई नहीं है।३ कृष्ण भक्ति काव्य-परम्परा में सूरसागर का स्थान : महाकवि सूर को साहित्य के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्टता का कीर्तिमान उनकी प्रसिद्ध कृति सूरसागर के कारण मिला है। सूरसागर में कवि की जो अद्भुत प्रतिमा दिखाई देती है, उसी से सूर को साहित्याकाश के सूर्य उपमित किये जाते हैं। ___ कई विद्वान् सूरसागर को भागवत का भावानुवाद स्वीकार करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है। कवि ने भागवत का मुख्याधार लेकर इसे अपनी मौलिकता के आधार पर गौरवगरिमा प्रदान की है। कवि की इस कृति का कृष्ण भक्ति काव्य में मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। इसमें कवि ने जो भावपूर्ण चित्र खींचे हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ है। सूरसागर को क्या भावपक्ष, क्या कला-पक्ष, सभी क्षेत्रों में अद्भुत सफलता मिली है। हिन्दी साहित्य में कृष्ण काव्य परम्परा की चर्चा हमनें पूर्व में कर ली है, जिसमें सूरसागर को महत्त्वपूर्ण कृति स्वीकार किया है। सूरसागर का महत्त्व निम्न प्रकार से देखा जा सकता है। __सूरसागर का मुख्य वर्णय विषय श्री कृष्ण का लीलागान है। कवि ने कृष्ण लीला के गायन को ही अपना साध्य बनाया है। इसमें श्री कृष्ण के जन्म से लेकर ब्रजवास की विविध क्रीड़ाओं का वर्णन करते हुए मथुरागमन तथा ब्रजवासियों से भेंट तक की घटनाओं का सर्वाधिक वर्णन किया गया है। गेय पदों में रचित इस ग्रन्थ में विविध प्रसंगों के बड़े ही सुन्दर व मार्मिक वर्णन मिलते हैं। सूर ने कृष्ण लीला के साथ-साथ राम कथा का भी वर्णन किया है जो कवि की मौलिकता का परिचायक है। इसके अलावा भी कई प्रसंग सूरसागर में भागवतानुसार वर्णित हैं परन्तु उनमें न तो भक्ति-भावना है और न ही काव्य-सौष्ठव। सूरसागर में कृष्ण-लीला सम्बन्धी पद ही उनकी कीर्ति के आधार स्तम्भ हैं। इनकी प्रत्येक पंक्ति में कवि की मौलिकता एवं प्रतिभा के दर्शन होते हैं। सूरसागर में तत्कालीन परिस्थितियों एवं विचारधाराओं का भी प्रतिबिम्ब हुआ है। हिन्दी साहित्य का यह अमूल्य ग्रन्थ अपने समय की भावना व कल्पना का सार है। पुष्टिमार्ग से दीक्षित होने के कारण कवि ने अपनी वाणी में उसके सिद्धान्तों व विचारों का भी भली-भाँति निरूपण किया है। सूरसागर वास्तव में विशाल सागर की तरह है, जिसमें सूर के सब विचारों तथा भावनाओं की मुक्ताएँ गिरी हैं। इसमें उन्होंने शुद्धाद्वैत वादी दर्शन तथा पुष्टिमार्गी प्रेमाभक्ति का निचोड़ भर दिया है। वात्सल्य, सख्य 371 =