________________ उक्ति चीज अनुप्रास, बरन, अस्थिति अति भारी। बचन प्रीती निरबाह अर्थ, अद्भुत तुक धारी॥ प्रतिबिम्बित दिवि दिष्टि, हृदय हरिलीला भासी। जनम करम गुन, रूप सर्व रसना परकासी॥ विमल बुद्धि गुन और की, जो वह गुन स्रवन करे। सूर कवित्त सुनि कौन कवि, जो नहिं सिर-चालन करै॥(पद सं० 545) सूर की काव्य कला के अनुसंधानकर्ता डॉ० मदनमोहन गौतम के अनुसार भाषा के समग्र रूप को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि सूर की भाषा में ब्रज भाषा का प्रौढ़ एवं शिष्ट रूप है। प्रसंगानुकूल उसमें भाषा के विविध रूप के दर्शन होते हैं। साधारण बोलचाल की भाषा से लेकर अलंकृत और नादवैभव से सम्पन्न भाषा सूरसागर में मिलती है। संक्षेप में भाषा से लेकर अलंकृत सूर के हाथ की पुत्तलिका रही है, जैसा कवि ने चाहा है वैसा रंग उसने दिखाया है। 20 ___ उपर्युक्त विवेचनानुसार सूरसागर की भाषा के बारे में संक्षेप में कहें तो वह भावानुसारिणी, सरसता एवं सुबोधता से युक्त, रसों तथा भावों को व्यक्त करने में सक्षम, गतिशील, प्रवाहमयी, परिष्कृत, आडम्बरहीन एवं सजीव है जिसमें सूर की रस-सिद्धता मुखरित हुई है। निष्कर्ष : दोनों ही आलोच्य कृतियों की भाषा पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि दोनों ही कवियों का अपनी-अपनी भाषा पर पूर्ण अधिकार है। यदि जिनसेनाचार्य ने गतिशील समास-अलंकार युक्त संस्कृत भाषा का प्रयोग किया है तो महाकवि सूर ने भावाभिव्यञ्जनासक्षम, सरल सरस साहित्यिक ब्रज भाषा का। तुलना करने पर उनके उत्कर्षापकर्ष का कथन करना कठिन है क्योंकि दोनों अपने-अपने क्षेत्र में पूर्ण तथा अद्वितीय हैं। दोनों कृतिकारों की भाषा विशुद्ध रही है परन्तु उनमें जो अन्तर रहा है, वह दोनों परम्पराओं, तत्कालीन परिस्थितियों तथा काव्य रूपों के अनुसार है। (ग) सूक्तियां व मुहावरे :____ कवि अपनी भाषा को सशक्त एवं सुन्दर बनाने के लिए सूक्तियों, मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग करते हैं। ये सब भाषा के अनिवार्य उपकरण हैं। इनके प्रयोग से भाषा में लाक्षणिकता, अर्थ-गांभीर्य, वैचित्र्य, मार्मिकता, सरलता एवं कौतूहल जैसे अद्भुत गुणों का सहज ही समन्वय हो जाता है। __ आचार्य जिनसेन एवं महाकवि सूर के काव्य में सूक्तियों व मुहावरों; इत्यादि का यथास्थान सहज समावेश मिलता है। हरिवंशपुराण में कवि ने संस्कृत के अनेक प्रसिद्ध