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________________ स्वभावमुखसौगन्ध्यबद्धभ्रान्तालिमण्डलम्। अहरत्सत्यभामा तद्भ्रान्तया सद्गन्धवस्तित्वति॥ वर्णगन्धाढ्यमापिष्य समालभत चादरात्। हसिता हरिचन्द्रेण सा चुक्रोश तमीjया॥२४ तदुपरान्त श्री कृष्ण सत्यभामा को एक बाग में ले जाते हैं। वहाँ रुक्मिणी वाटिका के समीप एक हाथ में आम्र की लता पकड़कर पंजों के बल खड़ी होती है। देवी के समान सुन्दर रूप को धारण करने वाली रुक्मिणी को देखकर सत्यभामा उसे देवी मान उसके चरणों में गिर जाती है उसके सामने फूलों की अंजलि बिखेर कर अपने सौभाग्य की याचना करती है, तब श्री कृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा देते हैं। सत्यभामा रहस्य जान लज्जित हो जाती है निरूप्य रुक्मिणी सत्या देवतामिव रूपिणीम् देवतेयमिति ध्यात्वा विकीर्य कुसुमांजलिम्। निपत्य पादयोस्तस्याः स्वसौभाग्यमयाचत। विपक्षस्य तु दोर्भाग्यमीया॑शल्यकलंकिता॥ अन्तरेऽत्र हरिः सत्यां हारिस्मितमुखोऽवदत्। अपर्वं दर्शनं स्वस्त्रोरहो वृत्तं नयान्वितम्॥२५ सूरसागर : एक बार श्री कृष्ण माखन की चोरी करते किसी गोपी के हाथ पकड़े जाते हैं। उनका हाथ दधिभाजन में तो था ही, वह उन्हें उसी समय पकड़ लेती है। परन्तु श्री कृष्ण चतुराई से बात बनाकर स्वयं को कैसे निर्दोष सिद्ध करते हैं, सूर के शब्दों में देखिये मैं जान्यों यह मैरो घर है, ता धोखे मैं आयो। देखत ही गोरस मैं चींटी, काढ़न को कर नायौ॥२६ श्री कृष्ण के हाजिर-जवाबी का एक और पद द्रष्टव्य है, जिसमें हास्य की परिणति मैया मैं नाहिं माखन खायौ। ख्याल परै ये सखा सबै मिली, मेरे मुख लपटायो। . सूरस्याम तब उत्तर बनायो, चींटी काढत पानी। करुण-रस : दोनों आलोच्य कृतियों में "करुण रस" की निष्पत्ति भी दृष्टिगोचर होती है।
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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