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________________ विशेष जोर देता है। सदाचरण ही मुक्ति का द्वार है, मोक्ष का साधन है अतः इसका पालन करना परमावश्यक-कर्तव्य है। उपसंहार : उपर्युक्त प्रकार से दोनों आलोच्य-कृतियों के दार्शनिक तत्त्वों की विवेचना के बाद यह स्पष्ट होता है कि दोनों ग्रन्थ अपनी-अपनी विशेष धारा से जुड़े हुए हैं। दोनों कवियों ने उन दृष्टिकोण को मध्यनजर रखते हुए इन सिद्धान्तों की तात्त्विक विवेचना की है। सूर एक भक्त कवि होने के कारण उनके दार्शनिक सिद्धान्त उनकी कविता में सम्पूर्ण रूप से घुले हुए मिलते हैं जबकि जिनसेन स्वामी ने दार्शनिक मान्यताओं का प्रसंगोचित विश्लेषण किया है जो अत्यन्त ही गहराई को छू गया है। दोनों ग्रन्थों के दार्शनिक सिद्धान्तों में पर्याप्त अन्तर है लेकिन दोनों कवि श्रेष्ठों ने जो परमधाम प्राप्ति का रास्ता बतलाया वह प्रशंसनीय है। दोनों का रास्ता अलग-अलग है, पर मंजिल एक है। सूर ने भक्ति पर विशेष बल देकर कृष्ण भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ बताया। जबकि जिनसेनाचार्य ने मुक्ति हेतु त्रिरत्न एवं. पंच महाव्रतों को महत्त्व प्रदान किया। मूल रूप से "मानव" ही देवत्व को प्राप्त कर सकता है। जब वह उत्थान के पथ पर अग्रसर होता है, तब वह ऊपर उठता है तथा देवत्व को प्राप्त हो जाता है फिर वही जिन या अहँत है, वही ईश्वर, वही सर्वज्ञ है।
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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