________________ श्री कृष्ण का चरित्र न केवल विभिन्न भाषाओं वरन् विभिन्न सम्प्रदायों का भी अतिक्रमण कर सर्वव्यापक बन गया है। वैष्णव परम्परा ही नहीं अपितु जैन एवं बौद्ध सम्प्रदायों में भी श्री कृष्ण के निरूपण की एक विशद परम्परा उपलब्ध होती है। यहाँ तक कि कई पाश्चात्य विद्वानों ने कृष्ण और क्राइस्ट की साम्यता सिद्ध करने का भी असफल प्रयास किया है। विगत दो सहस्राब्दियों से भी अधिक काल से इस विराट व्यक्तित्व द्वारा भारत के आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों क्षेत्रों को समान रूप से आवृत करने के कारण यह चरित्र प्रत्येक सम्प्रदाय के आकर्षण का केन्द्र रहा है। . जैन साहित्य में श्री कृष्ण चरित्र के वर्णन करने की एक विशाल परम्परा रही है। इस साहित्य परम्परा में ऐसी अनेक कृतियाँ हैं जिनमें कृष्ण-वासुदेव का चरित्र वर्णन है, परन्तु श्री कृष्ण वासुदेव से सम्बन्धित यह परम्परागत साहित्य प्रायः जनसाधारण और अधिकांश के लिए आज भी अपरिचित है। जैन-परम्परा में श्री कृष्ण का एक विशिष्ट स्वरूप है। उन्होंने श्री कृष्ण को शलाकापुरुष वासुदेव के रूप में स्वीकार किया है। श्री कृष्ण के गोपीजनप्रियरूप रास क्रीड़ाओं के नायक एवं लोक पुरुषोत्तम के रूप से जैन साहित्य प्रायः अनभिज्ञ रहा है। जैनों के आगम एवं आगमेतर साहित्य से इस चरित्र वर्णन की परम्परा रही है। न केवल प्राकृत, पाली एवं संस्कृत वरन् हिन्दी तथा अन्य अनेक आधुनिक भाषाओं के जैन साहित्य में श्री कृष्ण-चरित्र का वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है। . वैष्णव परम्परा में श्री कृष्ण देवाधिदेव, भगवान् के अवतार के रूप में निरूपित हुए हैं परन्तु जैन परम्परा में यह स्थिति भिन्न है। जैनों में अवतारवाद की अवधारणा नहीं होने से श्री कृष्ण न तो भगवान् के अवतार हैं और न ही स्वयं भगवान्। वे उन्हें एक महापुरुष (शलाकापुरुष) के रूप में स्वीकार करते हैं। जैन परम्परा के कृष्ण-चरित्र का तुलनात्मक अध्ययन जिज्ञासुओं की तृप्ति का एक प्रधान साधन होगा। "इस प्रकार जिस तरह देव नदी भागीरथा अनेक जलस्रोतों का एक अद्भुत संगम है, उसी तरह श्री कृष्ण चरित्र भी विभिन्न सम्प्रदायों, धार्मिक मान्यताओं एवं विभिन्न कृष्णनाम वाची महापुरुषों का एक समन्वित रूप है।" कृष्ण शब्द की व्युत्पत्ति :___ कृष्ण-चरित्र का वर्णन करते समय "कृष्ण" शब्द की व्युत्पत्ति समझना आवश्यक हो जाता है। "कृष्ण" शब्द के मूल में "कृष्" धातु है, जिसमें नक् प्रत्यय जुड़कर "कृष्ण" बना है, जिसका अर्थ होता है "कृषति मनः" अर्थात् मन को आकर्षित करने वाला। "कृष्" धातु सत्तावाचक और "ण" प्रत्यय आनन्दवाचक है। सत्ता और आनन्द का ऐक्य-भावरूप परब्रह्म कृष्ण कहलाता है।