________________ हरिवंशपुराण और सूरसागर में दर्शन जनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण आर सूरसागर की साहित्यिक पृष्ठभूमि पर विचार कर लेने के बाद दोनों आलोच्य कृतियों में वर्णित दार्शनिक पक्ष पर विचार किया जायेगा। आचार्य जिनसेन ने अपनी कृति में न केवल श्री कृष्ण की लीलाओं का ही समावेश किया है वरन् हरिवंश के अनेक महापुरुषों के चरित्र को भी निरूपित किया है। उनका मूल उद्देश्य उन महापुरुषों के लीलागान के साथ जैन-सिद्धान्तों के प्रतिपादन का रहा है। अतः हरिवंशपुराण में जैन-दर्शन का सुन्दर मणि-कांचन समावेश मिलता है। सूरसागर की रचना का हेतु दार्शनिक सिद्धान्तों के निरूपण की अपेक्षा श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान रहा है। परन्तु सूर एक महान भक्त एवं ऐसे सम्प्रदाय से जुड़े थे जो भारतीय-दर्शन की विशेष चिन्तन धारा से सम्बन्धित था। अतः भक्ति के साथ दार्शनिकसिद्धान्तों से जुड़ा होने के कारण उनका सूरसागर भी उत्कृष्ट दार्शनिक सिद्धान्तों से भरा पड़ा है। हरिवंशपुराण आचार्य जिनसेन दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय से जुड़े एक मुनि थे। उन्होंने अपनी कृति में उसी सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का तात्त्विक विवेचन किया है। हम जिनसेनाचार्य के दार्शनिक मत को प्रतिपादित करने का प्रयास करेंगे। जैन-धर्म : "जैन" शब्द "जिन" से बिना है। जिन का अर्थ है कि "जिसने मन, वाणी और काया को जीत लिया है।" इस धर्म का आचरण करने वाला-जैन। "जिन" महात्माओं को तीर्थंकर के रूप में पहचाना जाता है। "जैन-शासन" संसार-रूपी नदी को पार करने का किनारा है, तीर्थ है एवं उसे बाँधने वाले-तीर्थंकर। जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकर माने जाते हैं, जिनमें पहले तीर्थंकर "ऋषभ देव" तथा चौबीसवें तीर्थंकर "महावीर स्वामी" के रूप में प्रसिद्ध हैं। जैन-धर्म में दो पंथ हैं-एक तो श्वेताम्बर एवं दूसरा दिगम्बर। "श्वेताम्बर" अर्थात् जो श्वेत वस्त्र को धारण करते हैं। जो दिशाओं रूपी वस्त्र को धारण करने वाले हैं, वे "दिगम्बर" कहलाते हैं। इन दोनों पंथों में कुछ तात्त्विक भेद होने के बावजूद भी अहिंसा, संयम इत्यादि मूल-भूत सिद्धान्तों पर वे एक हैं।