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________________ तत्पश्चात् बलदेवजी ने द्वारिका में प्रवेश कर मद्यपान को बन्द करने की घोषणा करवाई। सभी लोगों ने मदिरा को शिलाओं के बीच बने हुए कुण्ड से युक्त कादम्ब गिरि की गुहा में डाल दिया। बहुत से लोग विनाश की बात सुन परिग्रह का त्याग कर तपोवन को चले गये। द्वारिका में रहने वाले भी व्रत, उपवास, पूजा आदि सत्कार्यों में संलग्न रहने लगे। एक बार द्वैपायन ऋषि द्वारिका आये। वे द्वारिका के बाहर एक पर्वत के निकट मार्ग में आतापन योग धारण कर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। उसी समय वन क्रीड़ा को आये एवं प्यास से थके शम्ब आदि कुमारों ने कदम्ब वन के कुण्डों में स्थित शराब को पी लिया। शराब के नशे में वे लड़खड़ाते नाचने लगे। जब वे नगर की ओर गये तथा वहाँ मार्ग में उन्होंने द्वैपायन ऋषि को देखा। उन्हें देखकर वे सोचने लगे कि यही द्वारिका के नाश का कारण होगा। आज यह हमारे आगे से कहाँ जायेगा? ऐसा सोचकर उन पर निर्दयता से पत्थर मार-मार कर उन्हें घायल कर दिया। मुनि क्रोध की अधिकता से अपने होठ डसने लगे तथा अपने तप से उन्हें नष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी भृकुटि चढ़ा दी। कुमारों के पास से उपर्युक्त घटना सुन कर श्री कृष्ण व बलराम मुनि का क्रोध शान्त करने के लिए उनके पास दौड़े। उन्होंने मुनि के पास आकर क्षमायाचना की परन्तु वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। ऋषि ने अपनी दो अंगुलियाँ बताकर इशारे से स्पष्ट किया कि तुम दोनों का छुटकारा हो सकता है, अन्य का नहीं। बलदेव व श्री कृष्ण द्वारिका का क्षय निश्चित जान नगर में आये। तत्पश्चात् द्वैपायन मुनि मरकर, अग्निकुमार नामक भवनवासी देव हुए। उसने द्वारिका में उत्पात शुरु किये। वह देव सारी नगरी को जलाने लगा तथा समस्त वृद्ध, स्त्री, बालक, पशु-पक्षियों को पकड़ कर अग्नि में फैंकने लगा। सारी पृथ्वी पर उन प्राणियों की चिल्लाहट सुनाई पड़ने लगी। दिव्य अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण नगर जलने लगा। बलराम व श्री कृष्ण नगर के कोट को फोड़कर समुद्र के प्रवाह से अग्नि को बुझाने लगे परन्तु उनका प्रयास असफल था। इस पर वे अपने माता-पिता तथा बहुत से लोगों को लेकर नगर के बाहर जाने लगे परन्तु उस देव ने कहा कि तुम दोनों के सिवाय कोई बाहर नहीं जा सकता। वृद्धजनों ने अपना विनाश निश्चित जान उन दोनों भाईयों को दुःखी मन से विदा किया। ततः पित्रा च मातृभ्यां पुत्रौ यातमितीरितौ। विनिश्चित्योपसंहारमात्मीयमिति दुःखिभिः॥१८९६१/८७ तान्प्रशाम्य गतौ दीनौ दुःखितौ दुःखपीड़िताम्। प्रपत्प पादयोर्यातौ गुरुवाक्यकरौ पुरः॥१९०६१/८९
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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