________________ दुष्टसभा पिचास दुरजोधन, चाहत नग्न करी। भीष्म द्रोन करन सब निरखत, उनतै मौन धरी। अब मौकौं धरि रहि न कोऊ, एके टेक हरि। जय जयकार भयो त्रिभुवन मैं, जब द्रोपदी उबरी। सूरदास प्रभु सिंह सरनगति, स्यारहि कहा डरी। द्रौपदी की करुणा भरी प्रार्थना सुनकर श्री कृष्ण ने उसकी तत्काल सहायता की। उसके चीर को इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन उसे खींचता-खींचता थक गया लेकिन द्रौपदी को नग्न करने में सफल न हो सका। जिसने शेर की शरण ली हो, उसका सियार क्या बिगाड़ सकता है? इस दृश्य को देखकर दुर्योधन को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सिर धुनने लगा तथा अपने हाथ मरोड़ने लगा परन्तु वह क्या कर सकता था। जिस पर करुणामय श्री कृष्ण की कृपा हो, उस दिशा में कौन देख सकता है। उसकी उन्होंने अविलम्ब सहायता की है। द्रौपदी प्रसन्न हो कहने लगी कि जो आज श्री कृण न होते तो इस अबला की लाज नहीं रहती। परन्तु उन्होंने समय पर मेरी रक्षा कर अपनी कीर्ति को और भी बढ़ा दिया है। सूरसागर में द्रौपदी-सहाय के भाव-पूर्ण चित्र मिलते हैं। द्रौपदी की व्याकुलता, उसकी प्रार्थना इत्यादि के 16 पद हैं जिसमें श्री कृष्ण द्वारा उसकी सहायता का उल्लेख है। तदन्तर जुएँ में हार जाने के बाद पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञात वास भोग़ना पड़ा। पाण्डवों का यह काल जब पूर्ण होने आया उस समय श्री कृष्ण व बलराम अज्ञात वास में रह रहे पाण्डवों के पास राजा विराट के यहाँ गये। विराट नगरी में युधिष्ठिर के हितैषी राजाओं को श्री कृष्ण ने संगठित किया। श्री कृष्ण ने एक सभा भरकर दुर्योधन द्वारा कपट में हराकर युधिष्ठिर से राज्य लेने की बात कही। इस पर राजाओं ने श्री कृष्ण को दूत के रूप में हस्तिनापुर जाने की बात कही। श्री कृष्ण : ने पाण्डवों का यह दौत्य कार्य स्वीकार कर उनमें शांति स्थापित करने हेतु तथा भाईयों का सौहार्द्र बनाये रखने हेतु हस्तिनापुर गये। . भए पांडवनि के हरि दूत, गए जहाँ कौरवपति धूत।१६६ / / - उन्होंने राजसभा में जाकर धृतराष्ट्र से कहा कि—पाण्डुपुत्र पाण्डव कुशलपूर्वक हैं, उन्होंने अपना कुशलक्षेम एवं दंडवत सुनाया है। मैं आपमें शांति की स्थापना की प्रार्थना के लिए आया हूँ। न्यायानुसार आप इन्हें अपना आधा राज्य दे दीजिये परन्तु इसमें भी आपको कोई बाधा हो तो आप उन्हें केवल पाँच ग्राम ही दे दीजिए, वे आपके ही कुलवंश के हैं। पाँच गाऊ पाँचौ जननि किरपा करि दीजै। ये तुम्हारे कुल-वंस है हमरी सुनि लीजै॥१६७