________________ श्री कृष्ण उस समय आराम कर रहे थे। सुदामा का आगमन सुनकर वे तुरन्त ही दौड़ते हुए द्वार तक गये एवं उसे अंक में लेकर भेंट की। श्री कृष्ण के आँखों में अश्रु आ गये। उन्होंने आदरपूर्वक उसे अपने सिंहासन पर बैठाया। उससे हालचाल पूछे तथा कहा कि-भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है? गरीब सुदामा श्री कृष्ण के ऐश्वर्य को देखकर तन्दुल की पोटली छिपाने लगे। कृष्ण के मानस-पटल पर गुरु-आश्रम की वह घटना तैर आई जब वे गुरु की पत्नी की आज्ञा से कुछ लकड़ी लेने जंगल पहुंचे थे तथा वहाँ पहुँचते ही आँधी व बरसात ने सारे जंगल को घेर लिया था। सर्वत्र सघन अंधकार छ, गया था। सारी रात रास्ता खोजने पर भी नहीं मिला था, हार कर वे एक वृक्ष के नीचे खड़े हुए थे। प्रात:काल गुरु सांदीपनि वहाँ पधारे थे तथा वे उन्हें घर ले गये थे। श्री कृष्ण सोचने लगे कि यदि उस दिन मेरा यह मित्र सुदामा मेरे साथ म होता तो न जाने मेरी क्या दशा होती? सुदामा के कारण ही वह कष्टदायी रात्रि का समय बीत सका गुरु गृह हम जब वन को जात। तोरत हमरे बदले लकरी, सहि सब दुख निज गात / / एक दिवस बरसा भई बन मैं, रहि गए ताहीँ ठौर / प्रति उपकार कहा करो सूरज, भावत आप भुरार।१६२ इस प्रकार गुरु-आश्रम की विगत घटनाओं को याद करते हुए श्री कृष्ण ने सुदामा की बगल में दबी चावलों की पोटली को झपट लिया। वे उस पोटली में से मुट्ठी भरभर के चाव से चावल खाने लगे। सुदामा की प्रेम भावना से अनुरक्त ये चावल श्री कृष्ण को अत्यन्त ही स्वादिष्ट लग रहे थे। तदनन्तर कई दिनों तक श्री कृष्ण ने सुदामा को अपने यहाँ रखा। तत्पश्चात् सुदामा ने श्री कृष्ण से विदाई लेकर अपने गृह को गमन किया। परन्तु उनके मन में एक ही टीस थी कि श्री कृष्ण ने मेरी दशा पर कुछ भी विचार नहीं किया? मैं अपनी पत्नी के आगे क्या रखूगा? ऐसे विचार करते-करते उनका हृदय भर आया लेकिन उन्हें एक बात का पूर्ण सन्तोष था कि श्री कृष्ण ने मेरा कितना आदर-सत्कार किया। मुझे कितना मानसम्मान दिया, कहाँ तो मैं एक दीन-हीन और कहाँ वे द्वारिकापति। परन्तु जैसे ही सुदामा घर लौटे तो वहाँ मानो अचानक उन पर बिजली गिरी हो, ऐसी दशा हो गई। क्योंकि उनकी झोपड़ी का नामो-निशान नहीं था। वे अपना सिर धुनकर, हाथ मरोड़कर सोच करने लगे कि द्वारिका जाना बेकार हुआ, मेरी तनक-मडैया रही-सही झोंपड़ी भी गई, अब क्या करूँ? झोंपड़ी के स्थान पर सुन्दर महल हो गया। मेरी झोंपड़ी तो यहीं थी। मुदामा मंदिर देखि डरयौ। इहाँ हुति मेरी तनक मडैया, जाको नप आनि छरयौ। सीस धुने दौड़, कर मीडें, अंतर सोच परयो॥१६३ . 182=