________________ श्री कृष्ण के युद्ध का चित्रण नहीं किया है जबकि सूर ने इस प्रसंग को मनोयोग से वर्णित किया है। सुदामा पर श्री कृष्ण की कृपा : महाकवि सूर ने श्री कृष्ण की दीनबन्धुता का यह प्रसंग विशदता से निरूपित किया है। उनके अनुसार श्री कृष्ण के जीवन की शुरुआत में ही सुदामा से मित्रता हो गई थी। वह एक दरिद्र ब्राह्मण था परन्तु श्री कृष्ण अपनी समस्त प्रभुता को छोड़कर उस सहपाठी से सहृदय मिलते थे। जब बलराम के साथ श्री कृष्ण ने गुरु सांदीपनि के यहाँ वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों व राजनीति की शिक्षा प्राप्त को , तक के आश्रम में सुदामा नाम का एक ब्राह्मण कुमार भी शिक्षा प्राप्त कर रहा था। वहाँ श्री कृष्ण की मित्रता उसके साथ हो गई। तदनन्तर सुदामा अपना गृहस्थाश्रम दरिद्रता से गुजार रहे थे। प्रातः उठकर भिक्षा माँगने जाते, तब कहीं उनका भोजन चलता। यदि वे एक दिन भी भिक्षा लेने न जाते तो उनका उपवास होता परन्तु वे भगवान् की भक्ति में तल्लीन रहते थे। उनकी पत्नी "सुशीला" अपने नाम के अनुरूप सुशील, आज्ञाकारी एवं पतिव्रता थी। उसने श्री कृष्ण की उदारता को सुना था परन्तु संकोच के कारण वह अपने पति से यह नहीं कह पाती कि आप दीनबन्धु श्री कृष्ण के पास जाएँ। वह हमेशा यह सोचा करती थी कि कहीं आत्माभिमानी सुदामा के हृदय में चोट न लग जाय। लेकिन उसके कष्टों की सीमा नहीं थी। अतः थककर एक दिन उसने अपने पति से यह कह ही दिया कि वे परमकृपालु, दीनबन्धु, उदारहृदय अपने सखा श्री कृष्ण के पास क्यों नहीं जाते। द्वारिका कहाँ दूर है? कंत सिधारौ मधुसुदन पै, सुनियत है वे मीत तुम्हारे। बालसखा अरु विपत्ति विभंजन, संकट हरन मुकुंद मुरारे॥६० सुदामा अपनी दरिद्रता के कारण द्वारिका-नरेश श्री कृष्ण के पास जाने में झिझक रहे थे, फिर भी पत्नी का आग्रह मानकर द्वारिका जाने को एक दिन उद्यत हो ही गये। अपने अभिन्न मित्र के पास खाली हाथ जाने में उन्हें शर्म महसूस हो रही थी। तब उनकी पत्नी ने एक फटे अंगोछे में थोड़े से तन्दुल बाँधकर सुदामा को श्री कृष्ण के पास भेजा। - सुदामा विचार करते, सकुचाते, द्वारिका की ओर चल पड़े। उनके मन में कितनी ही कल्पनाएँ आ रही थी कि मैं दीन-हीन व्यक्ति श्री कृष्ण से कैसे मिल पाऊँगा? वे मुझे पहचानेंगे या नहीं? परन्तु सुदामा को रास्ते में अच्छे शकुन हो रहे थे। वे देखते ही देखते द्वारिका पहुँच गये। वहाँ श्री कृष्ण का पता पाना कौन सा कठिन काम था? वे शीघ्र ही राजद्वार पर पहुँच गये पहुँचयो जाइ राजद्वारि पर काहूँ नहिं अटकायौ। इत उत चिते फँस्यो मंदिर में, हरि को दरसन पायौ॥१६१