________________ मेचकं वस्त्रयुगलं मालां च मुकुटं गदाम्। लागलं मुसलं चापं सशरं शरधिद्वयम्॥ रथं दिव्यास्त्रसंपूर्णमुच्चैस्तालध्वजोर्जितम्। कुबेर: कामपालाय ददौ छत्रादिभिः सह॥१२९ तदन्तर यादवों के साथ संघ ने समुद्र के तट पर श्री कृष्ण एवं बलदेव का अभिषेक किया। वे हर्षित हो उनका जय-जयकार करने लगे तथा बड़े ही सुखपूर्वक उस नगरी में रहने लगे। उपर्युक्त विवेचनानुसार दोनों ही ग्रन्थों में जरासंध के डर से श्री कृष्ण द्वारा भागकर कुबेर द्वारा निर्मित द्वारका नगरी में प्रवेश का वर्णन मिलता है। सूरसागर के अनुसार जरासंध द्वारा लगाई गई आग में से श्री कृष्ण व बलराम झांसा देकर भाग निकले, जबकि हरिवंशपुराण में एक देवी ने आग का कृत्रिम दृश्य बताकर जरासंध . को वापस कर दिया। तदुपरान्त उन्होंने द्वारका को गमन किया। हरिवंशपुराण का यह प्रसंग सूरसागर की अपेक्षा अधिक विस्तृत, कलात्मक और रोचक है। द्वारका की शोभा का वर्णन भी जिनसेनाचार्य ने अत्यधिक किया है जबकि सूरसागर के दो-चार पदों में ही इसका उल्लेख मिलता है। * श्री कृष्ण द्वारा रुक्मिणी-हरण : रुक्मिणी विदर्भ देश के कुण्डिन नगर के राजा भीष्मक की पुत्री थी। कृष्ण रुक्मिणी को चाहते थे एवं रुक्मिणी श्री कृष्ण को चाहती थी। ईर्ष्या के कारण भीष्मक के पुत्र रुक्मी ने जरासंध के कथनानुसार रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण के साथ न करके चेटी नरेश शिशुपाल के साथ करना तय किया। जब रुक्मिणी को इस बात की जानकारी मिली कि उसका भाई उसका विवाह श्री कृष्ण से न करके शिशुपाल के साथ करवाना चाहता है, तब उसने एक ब्राह्मण के साथ श्री कृष्ण के पास सन्देशा भेजा। उसने पत्र में लिखा कि वह उनको पति के रूप में वरण कर चुकी है। आप अविलम्ब इस पत्र को पढ़ते ही कुण्डिनपुर पधारो। आपके बिना मेरे प्राण निकलें जा रहे हैं.। हे माधव! आप मेरी दीनता पर तरस खाकर मुझे स्वीकार करो। मुझे आप पर पूर्ण भरोसा है। हे गिरिधारी! आप मेरी लाज रखना। द्विज पाती दे कहियो स्यामहिं। कुंडिनपुर की कुंवरी रुकमिनी, जपति तिहारे नामहिं। पालागौं तुम जाहु द्वारिका, नँद नंदन के धामहिँ। कंचन-चीर पटंबर देहाँ कर कंकन जु इनामहिँ। यह सिसुपाल असुचि अज्ञानी हरत पराई बामहिँ। सूर स्याम प्रभु तुम्हारौ भरोसो लाज करो किन नामहिँ॥१३० D -