________________ करती हैं। तरह-तरह के बाजे बजने लगते हैं। सूर का नन्दोत्सव बड़ा ही स्वभाविक बन पड़ा है आज गृह नन्द महर कैं बधाई। प्रति समय मोहन मुख निरखत कोटि चंद-छवि पाइ। मिलि ब्रज-नागरि मंगल गावति, नंद-भवन मैं आई॥ देति असीस, जियो जसुदा-सुत कोटिन बरष कन्हाई। अति आनन्द बढ़यौ गोकुल मैं, उपमा कही न जाइ। सूरदास धनि नंदघरनी देखत नैन सिराई॥ सूर की भाँति जिनसेनाचार्य ने भी बाल-कृष्ण की सुन्दरता तथा गोपियों के असीम आनन्द का वर्णन किया है। बाल-कृष्ण चित्त पड़ा हुआ गदा, खड्ग, चक्र, अंकुश, शंख तथा पद्म आदि चिह्नों की प्रशस्त रेखाओं से चिह्नित लाल-लाल हाथ पैर चलाता था, तब वह गोप-गोपियों के मन को बरबस खींच लेता था। नील कमल जैसी सुन्दर शोभा को धारण करने वाले मनोहर बालक को गोपिकाएँ अतृप्त नेत्रों से टक-टकी लगाकर देखती रहती थी। गदासिचक्राङ्कशशंखपद्मप्रशस्तरेखारुणपाणिपादः। स गोपगोपीजनमानसानि सकाममुत्तानशयो जहार॥ सुरूपमिन्दीवरवर्णशोभं स्तनप्रदानव्यपदेशगोप्यः। अहंभवः पूर्णपयोधरास्तमतृप्तनेत्राः पपुरेकतानम्॥ 35/35-36 समीक्षा :- पुत्र जन्म समय के विविध लोकाचारों तथा उत्सवों का जैसा भावपूर्ण विशद वर्णन सूरसागर में है, वैसा हरिवंशपुराण में नहीं मिलता है। इस क्षेत्र में जिनसेनाचार्य सूरदास से पीछे हैं। दोनों कवियों ने अपनी कल्पना के आधार पर श्री कृष्ण जन्म कथा को वर्णित किया है परन्तु नवीन प्रसंगों की उद्भावना, भावों की सूक्ष्मता, वर्णन-वैविध्य की दृष्टि से सूर का वर्णन श्रेष्ठ है। जिनसेन स्वामी ने जहाँ इस प्रसंग को कुछ नवीनताएँ देकर संक्षेप में कथाक्रम की दृष्टि से वर्णित किया है, वहाँ सूर ने अत्यन्त भावपूर्ण और विस्तृत स्वरूप प्रदान किया है। बालक्रीड़ा : हरिवंशपुराणकार ने श्री कृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ाओं का वर्णन संक्षेप में किया है / सूरसागर की अपेक्षा यह वर्णन स्वल्प है। दोनों ग्रन्थों में बालक्रीड़ाओं को नन्द'यशोदा की अभूतपूर्व प्रीति को बढ़ने वाली तथा सम्पूर्ण ब्रजवासियों की खुशी का मूलाधार बताया गया है। उनकी यह लीलाएँ गोप-गोपियों के मन को आनन्द-विभोर कर देती है।