________________ "सप्ततरंगात्मक-सूरसागर" नाम का एक संक्षिप्त संस्मरण मथुरा निवासी "श्री बालमुकुन्द चतुर्वेदी" ने करवाया। इसमें मात्र 1241 पद थे तथा ग्रन्थ को सात तरंगों में विभाजित किया था। बाद में सूर कृत पदों में अनेक सटीक प्रकाशित होते रहे परन्तु इस दिशा में काशी के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान पं० सीताराम चतुर्वेदी का प्रयास सराहनीय रहा। इन्होंने "सूरसागर" का चार खण्डों में सटीक संस्करण प्रकाशित करवाया था। इसे अखिल भारतीय विक्रम परिषद्, काशी ने प्रकाशित किया था, जिसमें 5393 पद थे। इनका यह प्रयास काफी हद तक प्रशंसनीय है अब तक के प्रकाशित संस्मरणों में यह संस्करण निःसन्देह सर्वोत्तम है। स्कन्धात्मक संस्करण : सूरसागर के प्रथम प्रकाशन 'संगीतराग कल्पद्रुम' की लोकप्रियता को देखकर अनेक . प्रकाशकों ने सूरसागर का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इनमें ज्यादातर स्कन्धात्मक संस्करण थे। पठन-पाठन की दृष्टि से ये उपयोगी थे अतः मथुरा, आगरा, दिल्ली, जयपुर, बनारस से संवत् 1914 से 1922 के बीच अनेक संस्करण निकाले गये, लेकिन त्रुटि-मुद्रण से इन संस्करणों को विशेष ख्याति नहीं मिली। स्कन्धात्मक संस्करण के प्रकाशन का सर्वप्रथम श्रेय काशी के प्रख्यात साहित्यकार बाबू राधाकृष्णदास को जाता है जिन्होंने संवत् 1953 में वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से सूरसागर का संस्करण प्रकाशित करवाया। इसमें सूर की जीवनी प्रकाशित थी। यह एक सफल प्रयास था तथा इसे प्रसिद्धि भी मिली परन्तु इसमें एक ही त्रुटि थी कि इससे इस धारणा. को बल मिल रहा था कि सूरसागर भागवत का अनुवाद है। तत्पश्चात् सूरसागर के संस्करण प्रकाशन में सर्वाधिक श्रेय मिलता है बाबू जगन्नाथदास "रत्नाकर" को। उन्होंने अनेक हस्तलिखित प्रतियों का संकलन कर सम्पादन कार्य को आगे बढ़ाया। लेकिन ग्रन्थ की पूर्णता के पहले ही वे स्वर्गवासी हो गये। उनकी इच्छानुसार इस कार्य को "नागरी प्रचारिणी सभा, काशी" ने अपने हाथ में लिया तथा संवत् 1993 में सूरसागर के आठ खण्डों का प्रकाशन किया। - इसमें 1432 तथा 840 पृष्ठ थे। द्वितीय महायुद्ध के कारण प्रकाशन अपूर्ण रह गया। इससे सूर-साहित्य के प्रेमियों को निराशा हुई तथा इस निराशा के निराकरणार्थ "सूर-समिति" का गठन किया गया। इस समिति की देखरेख में "नन्ददुलारे वाजपेयी" को सूरसागर का एक पाठ, भेदरहित सामान्य संस्करण का कार्य सौंपा। वाजपेयी ने इस कार्य को सम्पूर्ण निष्ठा के साथ पूर्ण किया तथा सूरसागर के प्रथम भाग को सन् 1948 में तथा दूसरे भाग को सन् 1950 में प्रकाशित किया। इस प्रकाशन में 5206 पद हैं, इसमें से 4936 पद प्रामाणिक माने जाते हैं, 203 पद संदिग्ध तथा 67 पद प्रक्षिप्त हैं। सूरसागर के सभा-संस्करण में बम्बई संस्करण से 1147 पद ज्यादा हैं। =1128