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________________ वर्णन किया है परन्तु सर्वाधिक महत्त्व कृष्णावतार को ही दिया है। इसमें कृष्ण-लीला का क्रमिक विकास निरूपित हुआ है। सारावली का उपसंहार करते हुए, इसकी महत्ता की चर्चा करते महाकवि सूर ने बताया है कि "जो इस संवत् सारलीला को गायेंगे और युगल चरण को अपने चित्त में धारण करेंगे, वे गर्भावास के बन्दीखाने फिर नहीं आयेंगे।" सरस संमतसर लीला-गावें, युगल चित्त लावै। गरभवास बन्दीखाने में, सूर बहुरि नहि आवै॥ मुद्रण और प्रकाशन : __ संवत् 1898 वि० (ई०सं० 1841) में रागकल्पद्रुम के अन्तर्गत छापे सूरसागर के साथ ही सूरसारावली का प्रथम बार प्रकाशन हुआ था। इसका पुनर्मुद्रण नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ द्वारा प्रकाशित सूरसागर के साथ संवत् 1920 वि० (ई०सं० 1863) में हुआ था। वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई के सूरसागर के साथ संवत् 1953 वि० (ई०सं० 1886) में सारावली का तीसरी बार प्रकाशन हुआ था। तत्पश्चात् वहाँ से पुनःमुद्रणों में सारावली का निरन्तर प्रकाशन होता रहा। सारावली के इन तीनों मुद्रणों में समानता पाई जाती है। लेकिन बाद के संस्करणों में तत्सम शब्द शुद्ध करके लिखने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई के बन्द होने के कारण आगे चलकर इसका प्रकाशन नहीं हुआ परन्तु श्री प्रभुदयाल मित्तल ने संवत् 2014 वि० (ई०सं० 1956) में सारावली का सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित कराया है। इससे सारावली के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ है।६२ (2) साहित्य-लहरी : जिस प्रकार सारावली को कई आलोचक सूर की प्रामाणिक रचना नहीं मानते उसी तरह "साहित्य-लहरी" को भी संदिग्ध रचना मानते हैं। इस कृति में कवि का काव्याचार्य रूप प्रमुख है, उनका भक्त रूप गौण है इसलिए अनेक समीक्षकों ने इसे सूर का ग्रन्थ न मान कर इसकी अप्रामाणिकता घोषित की है। डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा ने लिखा है कि "एक तो यह साहित्य लहरी के प्रणयन में कवि की मूलप्रेरणा साहित्यिक हैभक्ति नहीं तथा दूसरी बात यह कि इन दृष्टिकूट कहे जाने वाले पदों में राधा और राधा कृष्ण के नखशिख के वर्णन नहीं हैं। कुछ पद श्रृंगार से सम्बद्ध होते हुए भी राधा का उल्लेख नहीं करते तथा कुछ स्पष्टतया राधा और दाम्पत्य रति से असम्बन्ध हैं।" साहित्य-लहरी में जो श्रृंगार वर्णन किया गया है वह "रसो वै सः" अतिवाक्य के अनुसार भगवान् के ही रसरूप तथा आनन्द रूप की अभिव्यक्ति है, जिसका निरूपण सूर ने इस कृति में किया है। =1028
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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