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________________ इस ग्रन्थ की विषय वस्तु 66 सर्गों, आठ अधिकारों में विभक्त है। पुराणों में सर्वप्रथम लोक के आकार का वर्णन, फिर राजवंशों की उत्पत्ति, तदनन्तर हरिवंश का अवतार, फिर वासुदेव की चेष्टाओं का कथन, तदनन्तर नेमिनाथ का चरित्र, द्वारिका का निर्माण, युद्ध का वर्णन तथा निर्वाण-ये आठ अधिकार कहे गये हैं।२६ इस विशालकाय पौराणिक कृति में आचार्य जिनसेन ने अनेक गणधरों का वर्णन, क्षत्रिय आदि वर्णों का निरूपण, हरिवंश की उत्पत्ति, हरिवंश में उत्पन्न अन्धकवृष्टि का जन्म तथा उसके दस कुमारों का वर्णन, वेदों की उत्पत्ति, राजा सौदास की कथा, बलदेव की उत्पत्ति, जरासंध एवं कंस का अत्याचार, वासुदेव-देवकी का विवाह, अंतिमुक्त मुनि की भविष्यवाणी, श्री कृष्ण की उत्पत्ति, गोकुल में उनकी बाल चेष्टाएँ, यमुना में नाग नाथना, कंस-वध, उग्रसेन का राज्य, सत्यभामा का पाणिग्रहण, जरासंध वध, द्वारिका नगरी की वैभवशीलता, रुक्मिणी का हरण, प्रद्युम्न का जन्म, शम्बकुमार की उत्पत्ति, श्री कृष्ण की दिग्विजय, दिव्य रत्नों की उत्पत्ति, कौरवों का पाण्डवों के साथ युद्ध, श्री कृष्ण को नेमिनाथ द्वारा सामर्थ्य का उपदेश, नेमिनाथ की जलक्रीड़ा, नेमिनाथ का विवाह-प्रारम्भ, पशुओं को छुड़ाना, उनकी दीक्षा, राजमति की तपस्या, नेमिनाथ का गिरनार पर आरूढ़ होना, धर्मतीर्थों का विहार, अनेक परिजनों का नेमिनाथ से दीक्षा लेना, द्वारिका-विनाश, बलराम तथा कृष्ण का वहाँ से निकलना, जरत्कुमार के बाण से कृष्ण का अवसान, बलदेव की विरक्ति, पाण्डवों का तप के लिए वन में जाना इत्यादि अनेक प्रसंगों का वर्णन विस्तार से किया गया है। इन समस्त प्रसंगों में कवि ने चक्रवर्तियों, अर्द्ध चक्रवर्तियों, बलभद्रों तथा अनेक महापुरुषों का चरित्र चित्रण करने का सफल प्रयास किया है। कथा-वस्तु के गुम्फन की दृष्टि से हरिवंशपुराण ग्रन्थ महाकाव्य के गुणों से गुंथा हुआ उच्चकोटि का काव्य ग्रन्थ है। इसमें काव्य के समस्त रसों का सुन्दर चित्रण दृष्टिगोचर होता है। कंसवध, मल्लयुद्ध, रुक्मिणी हरण, जरासंध-वध इत्यादि प्रसंगों में वीररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है तो कृष्ण का वासुदेव स्वरूप तथा यदुवंशियों के प्रभाव वर्णन में अद्भुत रस का प्रकर्ष है। नेमिनाथ का विवाह, उनका वैराग्य, राजमती का तप तथा कृष्ण के अवसान इत्यादि कई प्रसंग करुण रस से भरे पड़े हैं। कवि ने संयोग श्रृंगार एवं विप्रलम्भ भंगार रस का भी यथोचित वर्णन किया है। काव्य का अन्त शांत रस में होता है। प्रकृति चित्रण में चन्द्रोदय, ऋतुवर्णन, संध्या वर्णन इत्यादि के सुन्दर स्थल दृष्टिगोचर होते हैं, साथ ही उत्कृष्ट एवं उदात्त भाषा में निरूपित यह ग्रन्थ विविध अलंकारों तथा छन्दों से अलंकृत है। __इस ग्रन्थ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जिनसेन बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। न जाने कितने समय तक उन्होंने लोकशास्त्र एवं काव्य का सूक्ष्म अध्ययन किया होगा, जिससे उनके पुराण में समाज के व्यापारों, पाखण्डों, उपद्रवों,
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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