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________________ 84 : जैनधर्म के सम्प्रदाय सका है कि इस गच्छ की उत्पत्ति कब, कहां एवं किसके द्वारा हुई तथा इनकी प्रमुख मान्यताएं क्या थी ? 43. रामसेनीय गच्छ : . 1401 ई० के एक मूर्तिलेख में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है।' इस लेख में इस गच्छ को बोकड़िया गोत्र से सम्बन्धित बतलाया है। मात्र एक मतिलेख की उपलब्धता से यही प्रतिफलित होता है कि यह गच्छ अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रह सका। ४.कृष्णर्षि गच्छ : इस गच्छ की उत्पत्ति कब, कहां, किसके द्वारा तथा क्यों हुई ? इत्यादि विवरण अनुपलब्ध हैं। किन्तु 1416 ई०, 1444 ई०, 1467 ई० तथा 1477 ई० के 4 मूर्तिलेखों में इस गच्छ का उल्लेख अवश्य हुआ है। इन लेखों में इस गच्छ के जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्दसूरि तथा नयचन्दसूरि-इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति मिलती है। 45. पिप्पलगच्छेत्रिभवीया : इस शाखा को पिप्पलगच्छ की एक शाखा के रूप में जाना जाता है। इस शाखा का उल्लेख. 1419 ई०, 1467 ई० और 1468 ई. के प्रतिमालेखों में हुआ है। अन्यान्य गच्छों की तरह इस गच्छ के विषय में भी पर्याप्त जानकारी का अभाव है। 46. पारापद्रीय गच्छ: . 1422 ई० से 1475 ई० तक के 8 मूर्तिलेखों में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। मूर्तिलेखों में इस गच्छ का नाम 'थिरापद्रीय' भी उल्लिखित है। इस गच्छ की उत्पत्ति एवं मान्यता संबंधी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। 47. कृष्णर्षि तपागच्छ : यह गच्छ भी तपागच्छ की एक शाखा मानी जाती है। इस गच्छ 1. प्रतिष्ठा लेख संग्रह, क्रमांक 182 2. वही, क्रमांक, 211, 351, 148, 782 3. वही, क्रमांक 217, 640, 100 4. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, अपांक 206, 268, 65, 142, 229, 61, 165,172
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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