________________ 60 : जैनधर्म के सम्प्रदाय सन की पांचवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहा था। यह सम्प्रदाय कुछ वर्षों पूर्व तक जैन समाज के लिये भी पूर्णतः अज्ञात बना हुआ था, किन्तु विगत कुछ वर्षों को शोधात्मक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित कुछ अभिलेख एवं ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं / सर्वप्रथम डॉ० ए० एन० उपाध्ये एवं पं० नाथुरामजी प्रेमी ने इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित कुछ लेख प्रकाशित किये थे, उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए प्रो० सागरमल जैन एवं श्रीमती कुसुम पटोरिया ने इस -सम्प्रदाय से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं की चर्चा अपने ग्रन्थों में की है। जिससे इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति, आचार-संहिता, इसके विभिन्न गण, अन्वय तथा इनके साहित्य आदि की जानकारी प्राप्त होती है / यापनीय संघ का सर्वप्रथम उल्लेख पलाशिका के 475 ई० के एक अभिलेख में मिलता है। इस अभिलेख में यापनीय, निर्ग्रन्थ एवं कूर्चकों को दिए गए भूमिदान का उल्लेख है। आचार की दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि इस परम्परा के साधु दिगम्बर साधुओं की तरह नग्न रहते थे, मयूर पिच्छी रखते थे, पाणितल भोजी ( करपात्री) थे तथा नग्न प्रतिमाओं की पूजा करते थे, किन्तु सिद्धान्त की दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि इस परम्परा के साधु श्वेताम्बर परम्परा के अधिक निकट थे। श्वेताम्बर साधुओं के समान ये भी स्त्रीमुक्ति तथा केवलीभुक्ति मानते थे। श्वेताम्बरों की तरह इस परम्परा में भी सवस्त्र की मुक्ति होना संभव माना गया है / ललित विस्तरा के कर्ता हरिभद्र और षड्दर्शनसमुच्चय के टीकाकार गुणरत्न ने भी इस कथन का समर्थन किया है। यापनीय संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं का मिला-जुला रूप था।" 1. जैन, सागरमल-जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ० 1 2. (क) जैन, सागरमल-जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय (ख) पटोरिया, श्रीमती कुसुम-यापनोय और उनका साहित्य 3. "श्री विजयपलाशिकायां यापनि (नी) य निर्ग्रन्थकूर्चकानां स्वर्वजयिके अष्टमे वैशाखे संवत्सरे कार्तिकपोष्ठार्मास्याम् / " -जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 99 4. जैन, सागरमल-जैन एकता का प्रश्न, पृ० 15 5. प्रेमी, नाथुराम-जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृ० 59