________________ जैन सम्प्रदार्यों के ऐतिहासिक स्रोत : 37 हैं-(१) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) भक्तपरिज्ञा, (4) संस्तारक, (5) तंदुलवैचारिक, (6) चन्द्रवेध्यक, (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिविद्या, (9) महाप्रत्याख्यान और (10) वीरस्तव / आगमों के उपयुक्त वर्गीकरण में जैन आगमों की जो संख्या और नाम बतलाए गए हैं उनके सन्दर्भ में जैनधर्म के सभी सम्प्रदाय एकमत नहीं हैं / अंग और उपांग ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को समान रूप से मान्य हैं, किन्तु 6 छेदसूत्रों को श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ही मान्य करता है / स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रारम्भिक 4 छेदसूत्रों को तो मान्य करते हैं, किन्तु अन्तिम दो छेदसूत्र इन दोनों परम्पराओं में मान्य नहीं हैं। नन्दो और अनुयोगद्वार नामक दोनों चूलिकासूत्र श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य हैं किन्तु स्थानकवासी और तेरापंथी इन्हें मूलसूत्रों के अन्तर्गत रखते हैं / मूलसूत्रों के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों को भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। कुछ आचार्यों ने उत्तराध्ययन, दशवकालिक, ओघनियुक्ति एवं पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र माना है तथा कुछ आचार्यों ने उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक एवं पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र माना है। स्थानकवासी तथा तेरापंथी सम्प्रदायों ने पिण्डनियुक्ति अथवा ओघनियुक्ति को मूलसूत्र के रूप में मान्य नहीं किया है। दस प्रकीर्णकों को यद्यपि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ने मान्य किया है तथापि उनके नाम एवं क्रम में भिन्नता है जिसकी चर्चा हमने अपनी पुस्तक 'दीवसागरपण्णत्ति . पइण्णयं' की भूमिका में विस्तारपूर्वक की है।' सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य को सम्प्रदायगत मान्यता की दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदायों को बत्तीस आगम मान्य हैं। श्वेताम्बर परम्परा के ही मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के कुछ गच्छ पैंतालीस आगम मानते हैं तथा कुछ गच्छ चौरासी आगम भी मानने हैं / दिगम्बर परम्परा आगमों के अस्तित्व को स्वीकार तो करती है, किन्तु उनके मतानुसार सभी आगम विलुप्त हो गए हैं। उनके स्थान पर शौरसेनी प्राकृत में रचित कुछ ग्रन्थों जैसेकषायप्राभृत, षट्खण्डागम एवं कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को वे आगम तुल्य मानते हैं। वे अपने साहित्य को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग-इन चार अनुयोगों में विभक्त करते हैं। 1. दीवसागरपण्णत्ति पइण्णय, भूमिका पृष्ठ 4-5