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________________ .232 : जैनधर्स के सम्प्रदाय श्वेताम्बर परम्परा में आगे चलकर १८वीं शताब्दी में स्थानकवासो परम्परा से तेरापन्थ सम्प्रदाय का उदय हुआ। जिसने दया-दान के प्रश्न को लेकर जैन परम्परा में एक भिन्न धारा को उपस्थित किया। यद्यपि जैनधर्म में आध्यात्मवाद को सदैव ही प्रमुखता मिलती रही है, फिर भी इसको प्रमुखता देने के फलस्वरूप एक ओर महान साधक श्रीमद्रामचंद्र से कविपन्थ का उदय हुआ तो दूसरी ओर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से प्रभावित होकर कानजी स्वामी ने दिगम्बर परम्परा में एक निश्चयनय प्रधान परम्परा को विकसित किया, जो वर्तमान में कानजी पन्थ नाम से जानी जाती है। इस प्रकार कालक्रम में जैन संघ अनेक विभागों में विभाजित होता गया। इस विभाजन का मूल आचार और दर्शन आचार सम्बन्धो मान्यताएँ भी रहो हैं। विभिन्न सम्प्रदायों की दर्शन सम्बन्धो जो परस्पर भिन्न मान्यताएं रही हैं, उनकी चर्चा हमने चतुर्थ अध्याय में की है। इस चर्चा में हमने निम्न प्रमुख बिन्दुओं का स्पर्श किया है-१. तत्त्व की संख्या का प्रश्न, 2. काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का प्रश्न, 3. पुद्गल के बन्ध के नियम सम्बन्धी मतभेद, 4. जीव के भेद, 5. स एवं स्थावर के वर्गीकरण का प्रश्न, 6. जगत का स्वरूप, 7. कर्म के भेद और उनका स्वरूप, 8. स्त्रीमुक्ति का प्रश्न, 9. केवलोभुक्ति को अवधारणा तथा 10. केवलो में ज्ञान और दर्शन के भेद-अभेद का प्रश्न / __ तत्त्वमीमांसीय और ज्ञानमीमांसीय क्षेत्रों में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में आवान्तर मतभेदों के साथ-साथ दृष्टिकोणों को प्रमुखता भी परिलक्षित होती है। उदाहरण के रूप में तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में तत्त्व सात हैं या नौ तथा पुण्य एवं पाप को स्वतन्त्र तत्त्व माना जाए अथवा नहीं, ये प्रश्न उठे हैं। यद्यपि दोनों परम्पराओं में दोनों मान्यताएँ पाई जाती हैं तथापि दिगम्बर परम्परा में सात तत्त्वों को और श्वेताम्बर परम्परा में नौ तत्त्वों की मान्यता प्रमुख रही है। दिगम्बर परम्परा में पुण्य और पाप को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानकर उनका अन्तर्भाव आस्रव तत्त्व में ही किया गया है। इसी प्रकार षड्द्रव्य की अवधारणा में काल स्वतन्त्र द्रव्य है अथवा नहीं, यह प्रश्न भी प्रमुख रहा है / यद्यपि दिगम्बर परम्परा एकमत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानती है किन्तु श्वेताम्बर परंपरा में कुछ प्राचीन आचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना है तो कुछ ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानकर, उसे जीव और पुद्गल को पर्यायों के रूप में हो माना है।
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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