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________________ उपसंहार : 231 श्वेतपट्टमहाश्रमण संघ, यापनीय संघ, मूलसंघ, कूर्चकसंघ, निर्ग्रन्थ महासंघ आदि के सर्वप्रथम उल्लेख हमें पांचवीं शताब्दी से मिलने लगते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय आदिके रूप में जैन संघ में स्पष्ट विभाजक रेखा पांचवीं शताब्दो के लगभग ही कभी खिंची गई थी। इसके पश्चात् ये सभी संघ पुनः विविध गण एवं अन्वयों आदि में विभाजित होते गए। श्वेताम्बर परम्परा में यद्यपि विद्याधरकुल, नागेन्द्र कुल आदि के उल्लेख आठवी-नवों शताब्दी तक यथावत मिलते रहे हैं किन्तु यह बात भो सत्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पांचवीं-छठों शताब्दी के बाद से चैत्यवासो परम्परा पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गई थी। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में शिथिलाचार के विरोध में समय-समय पर जो स्वर उभरे उन्हीं का परिणाम है कि एक ओर श्वेताम्बर परम्परा में दसवीं शताब्दी के बाद खरतर, तपा, अंचल आदि अनेक गच्छों और उनकी विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में मूलसंघ के साथ-साथ द्राविड़, काष्ठा, माथुर और यापनीय संघ का भी विकास हुआ। ___ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से श्वेताम्बर परम्परा में विविध गच्छ और उनकी शाखाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई, वहीं दिगम्बर परम्परा में भी धीरे-धीरे अनेक गण, अन्वय, कुल और शाखाएँ मूलसंघ के साथ जुड़तो गईं। इस प्रकार दसवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य जहां दिगम्बर सम्प्रदाय में एक ध्रुवीकरण हुआ वहीं श्वेताम्बर परम्परा में विभाजन होता गया। दिगम्बर परम्परा में जो ध्रुवीकरण हुआ उसका परिणाम यह निकला कि यापनीय, कूर्चक, आदि अनेक संघ नामशेष हो गए। - १६वीं-१.७वीं शताब्दी जैन धर्म में परिवर्तन की दृष्टि से एक क्रान्तिकारो शताब्दी रही है। इस शताब्दी में जहाँ एक ओर मुस्लिम धर्म के प्रभाव से श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा विरोधी लोकागच्छ और स्थानकवासी परम्परा का विकास हुआ वहीं दिगम्बर परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय के रूप में तारणपंथ का उदय हुआ। दूसरी ओर पूजा पद्धति और श्रमण आचार में बढ़ते हुए आडम्बर के विरोधस्वरूप बनारसीदास, टोडरमल आदि से दिगम्बर तेरापन्थी परम्परा का विकास हुआ। यह परम्परा मूर्तिपूजा को स्वीकार तो करती है किन्तु पूजा में सचित्त वस्तुओं के प्रयोग तथा यज्ञ आदि का विरोध भी करती है।
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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