________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएं' : 221 आदर के दान देना या दान नहीं देना हो तो अपनी वस्तु को भी दूसरों की वस्तु बता देने को इस व्रत के दोष माने हैं / श्रावक को इन दोषों का निराकरण कर सावधानीपूर्वक अतिथिसंविभाग व्रत का पालन करना चाहिए। सल्लेखना : जैन परम्परा में श्रमणों के समान ही श्रावक के लिए भी संलेखना (समाधिमरण) का उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा में साधक चाहे श्रमण हो अथवा श्रावक, उसे सल्लेखना ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है। श्रावकाचार को भूमिका में रहता हा श्रावक जीवनपर्यन्त व्रतों को आराधना करता है / जब मृत्यु जीवन के द्वार पर उपस्थित होकर दस्तक देतो प्रतीत होती है तो विवेकशील श्रावक देह पोषण के प्रयत्नों का परि-. त्यागकर शरीर के प्रति भी निर्ममत्व भाव की साधना करता है। इस प्रकार वह उपस्थित मृत्यु के स्वागत हेतु तत्पर रहता है। सल्लेखना न तो जोवन से पलायन है और न ही आत्महत्या है अपितु वह तो शान्त भाव से मृत्यु का आलिङ्गन करने को एक कला है। उपासकदशांगसूत्र में गृहस्थ के लिए मरणान्तिक सल्लेखना का निर्देश है।' तत्त्वार्थसूत्र में "मारणान्तिकी संलेखना जोषिता" कहकर जीवन के अन्तिम समय में संलेखना ग्रहण करने को कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में उपसर्ग, अकाल, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि होने पर धर्मपालन हेतु कषायों को कृश करते हुए शरीर त्याग करने को सल्लेखना कहा है। इस ग्रंथ में सल्लेखना के महत्त्व को बताते हुए इतना तक कहा गया है कि जिसका मरण सल्लेखनापूर्वक नहीं हुआ है उसके जीवनभर के समस्त जप, तप भी व्यर्थ हैं। इसमें सल्लेखना की विधि का उल्लेख . इस प्रकार है-सल्लेखना ग्रहण करने वाला व्यक्ति इष्ट वस्तु से राग, अनिष्ट वस्तु से द्वेष, परिजनों से ममत्व तथा समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर शुद्ध मन से अपने परिजनों से अपने दोषों को क्षमा .1. उवापगदसाओ, 1157 2. तत्त्वार्थसूत्र, 7.17 .. 3. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 531 4. वही, श्लोक 123