________________ . 220 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अन्न, वस्त्र आदि का संविभाग करना श्रावक का अतिथि संविभाग व्रत कहा है।' श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में निर्ग्रन्थ श्रमणों को अचित्त आहार औषधि आदि के दान को अतिथिसंविभागवत माना है / 2 रत्नकरण्डकश्रावकाचार में अतिथिसंविभागवत को वैयावृत्यव्रत नाम देकर कहा है कि गृह त्यागी मुनिजनों के लिये, स्वपर को धर्मवृद्धि के लिये, प्रतिदान एवं प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित होकर यथाशक्ति विधिपूर्वक दान देना चाहिए। लाटीसंहिता में कहा है कि उत्तम, मध्यम या जघन्य कोई भी पात्र मिल जाए, उसे विधिपूर्वक दान देना चाहिये / यह दान प्रासुक तथा शुद्ध होना चाहिये एवं विनयपूर्वक दिया जाना चाहिये / / अतिचार : अतिथि संविभाग व्रत के भी पांच अतिचार माने गये हैं। उपासकदशांगसूत्र में सचित्तनिक्षेपण, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश और मत्सरिता-ये पाँच अतिचार बतलाये हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में सचित्त-निक्षेप, सचित्तपिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम-ये पाँच अतिचार माने गये हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में हरितपिधान, निधान, अनादर, अस्मरण और मत्सर-ये पाँच अतिचार कहे हैं। सागार धर्मामत में सचित्त निक्षेप, सचित्तावृत्ति, कालातिक्रम, परव्यपदेश और मत्सर-ये पांच अतिचार बतलाए हैं . अतिथि संविभाग व्रत के इन अतिचारों के नाम एवं क्रम में अन्तर अवश्य है, किन्तु प्रायः सभी आचार्यों ने अचित्त वस्तु को सचित्त पर रखना, सचित्त को अचित्त पर रखना, दान देने का समय टालना, बिना 1. उपासकदशांगसूत्रटीका-मुनिघासीलालजो, पृ० 261 2. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र, अणुव्रत 12 3. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 4 / 21 4. लाटीसंहिता, 222 5. “तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समारियव्वा, तं जहा-सचित्त-निक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया।" उवासगदसाओ, 1156 6. तत्त्वार्थसूत्र, 7.31 7. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक 4 / 31 8. सागार धर्मामृत, 5 / 54