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________________ 210 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अधो व्यतिक्रम, तिर्यक् भाग व्यतिक्रम और क्षेत्रवृद्धि को दिव्रत के अतिचार माना है।' यहां हम देखते हैं कि विभिन्न ग्रन्थों में दिग्वत के जो अतिचार बतलाए गए हैं उनमें कुछ में शब्दगत भिन्नता है और कहीं-कहीं उनके क्रम में भी अन्तर है, किन्तु अतिचारों के स्वरूप को लेकर कोई भिन्नता नहीं है। सभी आचार्यों ने व्यक्ति को गमनागमन की विविध दिशाओं की एक निश्चित मर्यादा निर्धारित करने को कहा है ताकि उस परिधि के बाहर होने वाले कार्यों का दोष उसे नहीं लगे। 2. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत किसी वस्तु का एक बार उपयोग में आना उपभोग तथा बार-बार उपयोग में आना परिभोग है। एक अन्य दृष्टि से किसी वस्तु का एक बार उपयोग में आना भोग तथा बार-बार आना उपभोग है। वस्तुतः बारबार भोगे जाने वाले पदार्थों को उपभोग-परिभोग कहा जाता है। श्रावक विविध क्रियाओं को करता हुआ भोजन सम्बन्धी और कर्म सम्बन्धी उपभोग-परिभोग अवश्य करता है। उपभोग-परिभोग की वस्तुओं की सीमा निर्धारित करना उपभोग परिभोग परिमाण व्रत है। - गुणव्रत के विवेचन में आचार्यों का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहा है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में और वसुनन्दो ने वसूनन्दिश्रावकाचार में उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत को भो शिक्षाव्रत में रखा है, किन्तु समन्तभद्र ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार में, पं० आशाधर ने सागार धर्मामत में और आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन' में उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत को गुणव्रत के अन्तर्गत रखा है। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्रावक के सातवें व्रत का नाम उपभोग परिभोग परिमाण व्रत है। किन्तु दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में 1. सागारधर्मामृत, 5 / 5 2. तत्त्वार्थसूत्र, 7 / 16 3. वसुनन्दिधावकाचार, श्लोक 217 4. रत्नकरण्डकथावकाचार, श्लोक 3 / 36-39 5. सागारधर्मामृत, 5 / 13-19 6. उपासकाध्ययन, श्लोक 759-764 7. (क) उवासगदसाओ, 151 (ख) तत्वार्थसूत्र, 7 / 16 .
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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