________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 11 (55) अश्वग्रोव, (56) तारक, (57) मेरक, (58) मधु, (59) निशुम्भ, (60) बलि, (61) प्रह्लाद, (62) रावण और (63) जरासंघ / इन त्रेसठ शलाकापुरुषों में सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का नाम आता है किन्तु उनके सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करने से पूर्व हम तीर्थंकर की अवधारणा पर विचार करेंगे। तीर्थकर : तीर्थकर शब्द को परिभाषा अनेक रूपों में की गई है, यथा "तित्थयरे भगवते अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी। तिण्णे सुगइगइगए. सिद्धिपहपदेसए वंदे // "" "तरन्ति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थम् / "2 "तित्थं चाउवण्णो संघो तं जेहिं कयं ते तित्थंकरा।"3 अर्थात् जो अनुपम पराक्रम के धनी हैं, संसार-सागर से पार उतारने वाले हैं एवं चतुर्विध संघ के संस्थापक हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं / जैन आगमों, सिद्धान्त ग्रन्थों, चरित्र ग्रन्थों एवं अन्य पौराणिक ग्रन्थों में तीर्थकर शब्द का प्रयोग हआ है। यह शब्द सर्वप्रथम कब एवं किस रूप में प्रचलित हुआ था, यह खोजना तो इतिहास का विषय है किन्तु प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि तीर्थकर शब्द अति प्राचीन है। यद्यपि आज यह शब्द जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है, किन्तु प्राचीनकाल में सभी धर्मप्रणेता तीर्थंकर कहे जाते थे। बौद्ध साहित्य में तीर्थंकर शब्द कई स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। वहाँ निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र ( भगवान महावीर ) के अतिरिक्त मंखीलगोशाल, प्रकुधकात्यायन, संजयवेलट्ठिपुत्र आदि को भी तीर्थंकर कहा गया है। . जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गए हैं। तीर्थंकरों के उल्लेख 1. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 80 2. भगवती आराधना, गाथा 302 3. आवश्यकणि, 85 4. दीघनिकाय, पृष्ठ 17-18; उद्धृत-गुप्त, रमेशचन्द्र-तीर्थकर, बुद्ध और अवतार; पृष्ठ 27