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________________ 184 : जैनधर्म के सम्प्रदाय वर्षाकाल में भो विहार करने की अनुमति स्वरूप जो कारण भगवतो आराधना में बताये गए हैं, बहुत कुछ ये ही कारण स्थानांगसूत्र में भी बतलाये गए हैं।' वर्षाकाल का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि इस समय में श्रमणश्रमणी, श्रावक-श्राविका सभी अपनी आत्म-आराधना में लीन रहते हैं और अपने दोषों का उपशमन करने का प्रयत्न करते हैं। इस समय में पर्युपाषणा की जाती है इसलिए यह समय पर्युषण काल के रूप में भी . जाना जाता है / वर्षावास संबंधी इस समग्र चर्चा से यही फलित होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के श्रमण सूक्ष्मतम जीवों की हिंसा से अपने को बचाने के लिए वर्षाकाल में ग्रामानुग्राम विचरण नहीं करके एक ही स्थान पर ठहरते हैं। उपकरण : जिसके द्वारा उपकार किया जाता है, वह उपकरण है। उपधि का ही प्रचलित नाम उपकरण है। वस्त्र, पात्र आदि बाह्य उपधि हैं तथा राग, द्वेष, मोह एवं आसक्ति आदि अभ्यन्तर उपधि हैं / संयम साधना में लीन श्रमण को संयम रक्षा के लिए वस्त्र, पात्र आदि उपधि रखनी पड़ती है / आगम साहित्य में इसकी अनुमति दी गई है, किन्तु अनुमति के साथ ही आगमों में यह भी निर्देश दिया गया है कि श्रमण अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखे तथा जो भी संयमोपकरण वह रखे उन पर भी ममत्व नहीं रखे। __आचारांग टीका में श्रमण के रखने योग्य बारह प्रकार के उपकरण बतलाये गये हैं (1) पात्र, (2) पात्रबन्धन (पात्र रखने की झोली), (3) पात्र स्थापन (पात्र के नीचे का वस्त्र ), (4) पात्र-केसरी (प्रमार्जनिका), (5) पटल (पात्र ढकने का वस्त्र ), (6) रजस्राण (पानी छानने का वस्त्र ) (7) 1. स्थानांगसूत्र, 5 / 2 / 99 2. आचारांगसूत्र, 108 / 4 / 213-214 3. "पत्ते पत्ताबंधो पायठ्ठवणं च पायकेसरिया / पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पाणिज्जोगो // " -आचा० शीला टीका, जांक 277, उद्धृत-आचारांगसूत्र , भाग 2, सम्पा० मधुकर भुति, . 263
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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