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________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएं : 181 आचारांगसूत्र में कहा है कि श्रमण को मार्ग में चलते समय इधरउधर देखे बिना यत्नपूर्वक चलना चाहिए। श्रमण मार्ग में चलते समय जीव हिंसा से बचने के लिए दोनों हाथ-पैर सटाकर नहीं चलते हैं, ठंड से घबराकर हाथों को सिकोड़ते नहीं हैं, यहां तक कि कन्धों पर भी हाथ नहीं रखते हैं।' __मूलाचार में साधु के विहार योग्य मार्ग की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जिस मार्ग पर हाथी, घोड़े, रथ, स्त्री, पुरुष आदि गमनागमन करते रहते हों तथा जिस मार्ग पर सूर्य की किरणे पड़ रही हों, जहाँ हल आदि चलाए जा चुके हों, ऐसे मार्ग-प्रासुक मार्ग हैं। श्रमण को ऐसे मार्ग पर ही चलना चाहिए। वैसे श्रमण पैदल ही विहार करता है किन्तु कभी ऐसा प्रसंग आ जाए कि उसे नदी पार करनी हो और नौका (नाव) द्वारा उसे पार किया जा सकता हो तो श्रमण नौका का उपयोग कर सकता है। श्वेताम्बर परम्परा के आगम आचारांगसूत्र और दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथ भगवती आराधना को विजयोदया टीका में नौकारोहण विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। किन्तु दोनों ग्रंथों में यह भी कहा है कि नदी पार कर लेने के पश्चात् दूसरे तट पर पहुंचकर श्रमण को कायोत्सर्ग कर लेना चाहिए / इस प्रकार स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में श्रमणों को विहार चर्या में कोई विशेष अन्तर नहीं है। वर्षावास: - वर्षावास श्रमणचर्या का अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण अंग है / वर्षाकाल में लगातार चार माह एक ही स्थान पर रहने के कारण यह समय चातुमास के नाम से भी जाना जाता है। आषाढ़ माह में जब वर्षा प्रारम्भ हो जाती है तो भूमि त्रस एवं स्थावर जोवों से व्याप्त हो जाती है। मार्ग में सर्वत्र हरी वनस्पति, काई और सूक्ष्म जीव दिखाई देते हैं। ऐसे में गमनागमन करने से सूक्ष्म जीवों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है। 1. आचारांगसूत्र, 1 / 9 / 1 / 265-276 2. मूलाचार, गाथा 304-306 3. (क) आचारांगसूत्र, 2 / 3 / 11474-482 ... (ख) भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 152 4. (क) आचारांगसूत्र, 2 / 3 / 11414-468 (ख) भगवती अरावना, गाथा 421
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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