________________ 170 : जैनधर्म के सम्प्रदाय कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रस द्वेष का कारण है, उसे अम-. नोज्ञ कहते हैं / मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में जो राग-द्वेष नहीं रखकर समभाव से रहता है, वह वीतरागी है।' ____ मूलाचार में जिह्वन्द्रिय निग्रह का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है कि अशन आदि चार भेद रूप, पंच रस युक्त, प्रासुक, निर्दोष, दूसरों के द्वारा दिये गये रुचिकर अथवा अरुचिकर आहार में गृद्धि नहीं करना जिह्वेन्द्रिय निग्रह व्रत है। स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह : काय (शरीर) के ग्राह्य विषय को स्पर्श कहते हैं। जो स्पर्श राग का कारण है वह मनोज्ञ है और जो स्पर्श द्वेष का कारण है वह अमनोज्ञ है। मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप स्पर्शनेन्द्रिय विषयों में जो राग-द्वेष नहीं करके समभावपूर्वक रहता है, वह वीतरागी है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि स्पर्श से विरक्त मनुष्य ही शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी दुःख परंपरा से वैसे ही लिप्त नहीं होता है जैसे जलाशय में रहते हुए भी कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता है। __ मूलाचार में स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है कि जीव-अजीव से उत्पन्न कठोर, कोमल, शीत, अण, चिकने, रुखे, भारी और हल्के-इन आठ भेदों से युक्त सुख और दुःख रूप स्पर्श का निरोध करना स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह है।" कषाय: जो शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को कलुषित करते हैं अर्थात् कर्ममल से मलीन करते हैं, वे कषाय हैं / दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है. कि जिससे जीव पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। कषाय मुख्य रूप से चार हैं- (1) क्रोध कषाय (2) मान कषाय (3) 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 32 / 61 2. मूलाचार, गाथा 20 3. उत्तराध्ययनसूत्र, 32 / 74 4. वही, 32 / 73 5. मूलाचार, गाथा 21 6. (क) स्थानांगसूत्र, 4 / 1 / 75 (ख) समवायांगसूत्र, 4120 (ग) प्रज्ञापनासत्र, 287