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________________ 166 : जैनधर्म के सम्प्रदाय दशवकालिकसूत्र में मैथुन विरमण व्रत का कथन करते हुए कहा है कि न तो श्रमण स्वयं मैथुन का सेवन करें, न दूसरों से मैथुन सेवन करवाएँ और न मैथुन सेवन करने वाले दूसरे लोगों का अनुमोदन हो करें, क्योंकि अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषों का पुज है इसलिए निर्ग्रन्थ (साधु-साध्वी) मैथुन के संसर्ग का त्याग करते हैं / ब्रह्मचर्यव्रत का स्वरूप बतलाते हुए मूलाचार में कहा गया है कि स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्रों) को माता, पुत्री और बहन के समान देखकर जो स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है, वह ब्रह्मचर्य व्रत तोनों लोकों में पूज्य होता है। ब्रह्मचर्यव्रत की पांच भावनाएं : आचारांगसूत्र में ब्रह्मचर्यव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार बतलाई गई हैं ।४-१-स्त्रीकथा विवर्जनता, २-स्त्री अंग आलोकन विवर्जनता, 3. पूर्वरत (पूर्वक्रीड़ा) अननुस्मरणता, 4. प्रणोत भोजन-पान विवर्जनता और 5. स्त्री, पशु, नपुंसक संसक्त शयन-आसन विवर्जनता। ___ समवायांगसूत्र में भी ब्रह्मचर्यव्रत की पाँचों भावनाओं के नाम तो के ही बतलाए गए हैं, किन्तु वहाँ इनका क्रम इस प्रकार है५-१. स्त्री, पशु, नपुंसक संसक्त शयन आसन विवर्जनता, 2. स्त्रो कथा विवर्जनता, 3. स्त्री अंग आलोकन विवर्जनता, 4. पूर्वरत-पूर्वक्रोड़ा अनुस्मरणता और 5. प्रणीत आहार विवर्जनता। मूलाचार में भी इस व्रत को पांचों भावनाएँ इसी प्रकार बतलाई गयी हैं:-१. स्त्रियों का अवलोकन विवर्जन, 2. पूर्वभोगों का स्मरण विवर्जन, 3. संसक्त वसतिका से विरति, 4. विकथा से विरति तथा 5. प्रणीत रसों से विरति / 1. दशवकालिकसूत्र, 4 / 45 2. "मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गथा वज्जयंति णं // " -दशवकालिकसूत्र, 6 / 16 3. मूलाचार, गाथा 8 4. आचारांगसूत्र, 2 / 15 / 787 5. समवायांगसूत्र, 25 / 166 / . ..... 6. मलाचार. गाथा 34.... .. . :
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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