________________ 258: जनवर्म के सम्प्रदाय साथ विधिवत होने लगता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस परम्परा में श्रमण की सामायिकचारित्ररूप दीक्षा अथवा छेदोपस्थापनीयचारित्ररूप दीक्षा में वस्त्र, पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि बाह्य एवं समस्त अभ्यन्तर उपधि की मात्रा में कोई अन्तर नहीं है। इस परम्परानुसार कछ दिन स्वतन्त्र भिक्षाचर्या और आहार करने के पश्चात् श्रमण को छेदोपस्थापनीयचारित्ररूप दीक्षा देने का कारण उसकी श्रमणोचित भावना. एवं व्यवहार से पूरी तरह आश्वस्त हो जाना ही है / श्रमण को महाव्रतों का आरोपण भी छेदोपस्थापनीयचारित्र ग्रहण कराते समय हो कराया जाता है। दिगम्बर परम्परा में दीक्षा के तीन सोपान बतलाये गए हैं१. क्षुल्लक : पण्डित आशाधर ने सागार धर्मामृत में क्षुल्लक के आचार का विस्तार से उल्लेख करते हुए लिखा है कि क्षुल्लक यतनापूर्वक गमन, यतनापूर्वक शयन तथा विशुद्ध आहार ग्रहण करता है। क्षुल्लक एक लंगोट और दुपट्टा रखता है। क्षुल्लक पात्र अथवा हाथ में चाहे जिसमें भोजन ग्रहण कर सकता है / केशलोंच स्वयं कर सकता है तथा दूसरों से करवा भी सकता है।' जीवहिंसा से बचने के लिए क्षुल्लक मयूर पिच्छी रखता है तथा शोचोपकरण के रूप में वह कमण्डलु रखता है। क्षुल्लक दिगम्बर परम्परा में मुनि को प्रथम अवस्था है। 2. ऐलकः __ क्षुल्लक और श्रमण के मध्य की अवस्था का नाम ऐलक है / ऐलक एकमात्र लंगोटी धारण करता है। ऐलक पात्र में आहार ग्रहण नहीं करता है। केशलोंच भी स्वय ही करता है, किसी अन्य से केशलोंच नहीं करवाता है। जीव हिंसा से बचने के लिए ऐलक मयर पिच्छी धारण करता है तथा शोचोपकरण के रूप में कमण्डलु रखता है। 3. श्रमण : दिगम्बर परम्परा में सामान्यतया सीधे कोई श्रमण नहीं बन जाता है। साधक क्षुल्लक, ऐलक की अवस्था को पार करके ही श्रमण बन सकता है। यह अलग बात है कि इस परम्परा में भी सीधे मुनि दीक्षा 1. सागार धर्मामृत, 7/38-47 2. वही, 7/48