________________ विभिन्न सम्प्रदायों को श्रमणाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 157. कुल का क्यों न हो ? श्वेताम्बर परम्परा के मान्य आगम उत्तराध्ययनसूत्र के बारहवें अध्ययन में चाण्डाल कुलोत्पन्न हरिकेशबल नामक मुनि का उल्लेख है।' दिगम्बर परम्परा में शूद्रों के लिए क्षुल्लक दोक्षा का तो विधान है२, किन्तु योगसार में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को हो श्रमण दीक्षा का पात्र माना गया है, इससे ऐसा लगता है कि दिगम्बर परम्परा में शूद्र को श्रमण दीक्षा के योग्य नहीं माना गया है। श्वेताम्बर परम्परा के मान्य आगम स्थानांगसूत्र और उसको टोका में बालक, वृद्ध, नपुंसक, मूर्ख, क्लीव, योगो, चोर, डाकु, उन्मत्त, अन्धा, दास, दुष्ट, ऋणो, अपंग, बंधक, नौकर, अपहृत, गर्भिणो तथा छोटे बच्चे वाली स्त्री को दीक्षा का पात्र नहीं माना गया है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ भगवती आराधना में लिंग दोष के कारण दोक्षा के अयोग्यपात्रों का विवेचन हआ है।" योगसार में निन्दित कुल, कुजाति, कुदेड, कुवय, कुबुद्धि और क्रोधयुक्त मनुष्यों को दीक्षा का पात्र नहीं माना गया है। बोधपाहुड में भी कुरूप, होन अंगवाले तथा कुष्ठ रोगो को श्रमणः दीक्षा देने का निषेध किया गया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में दीक्षा के स्वरूप में भिन्नता है। श्वेताम्बर परम्परा में साधक को सर्वप्रथम सामायिक चारित्र की दीक्षा दी जाती है। सामायिकचारित्र रूप दोक्षा ग्रहण करके श्रमण कुछ दिनों तक अपने पात्र में स्वतन्त्र रूप से आहार लाता है और गुरू. आज्ञापूर्वक स्वतन्त्र हो आहार करता है, अन्य श्रमणों के साथ नहीं। श्रमण की यह स्थिति श्वेताम्बर परम्परा में छोटी दीक्षा के रूप में जानी जाती है, किन्तु कुछ दिनों पश्चात् जब श्रमण को छेदोपस्थापनोय चारित्र की दीक्षा दे दी जाती है तो उसका आहार आदि भी अन्य श्रमणों के 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 12/1 2. सर्वोपयोगीश्लोकसंग्रह, पृष्ठ 306-308 3. योगसार ( अमितगति ), श्लोक 51 4. स्थानांगसूत्र, 3/202, टीका पृष्ठ 154-155; उद्धृत-जैन और बौद्ध . भिक्षुणी संघ, पृष्ठ 19-20 5. भगवती आराधना, गाथा 77-80 ( विजयोदया टीका) 6. योगसार, श्लोक 51-52 7. बोषपाहुड, गाथा 49