________________ 154 : जैनधर्म के सम्प्रदाय मानने पर यह मानना पड़ेगा कि केवलज्ञान का विषय मात्र विशेष को ग्रहण करना और केवलदर्शन का विषय मात्र सामान्य को ग्रहण करना है, अर्थात् क्रमवाद एवं युगपत्वाद में केवलज्ञान और केवलदर्शन-ये दोनों उपयोग, मति आदि ज्ञान की भाँति सम्पूर्ण विषय में से केवल एक अंश के ही ग्राहक होते हैं अर्थात् इन दोनों वादों में कोई भी एक उपयोग सर्वग्राहक नहीं होगा और ऐसी स्थिति में इनके मत में केवली सर्वज्ञ, और सर्वदर्शी नहीं माना जा सकेगा। इसलिए ज्ञान और दर्शन-इन दो उपयोगों को अलग-अलग मानना उचित नहीं है। इस प्रकार केवली के ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में क्रमशः क्रमवाद, युगपत्वाद और अभेदवाद के. सिद्धान्त अस्तित्व में आये। जहाँ श्वेताम्बरों में क्रमवाद और अभेदवाद ऐसी दो मान्यताएँ प्रचलित रहीं, वहाँ दिगम्बर परम्परा में युगपत्वाद का सिद्धान्त मान्य हुआ। जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में दर्शन संबंधी भिन्नता कम है। दार्शनिक दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में विवाद के मुख्य विषय तो स्त्रीमुक्ति एवं केवलीभुक्ति ही रहे हैं, जिनकी चर्चा हमने प्रस्तुत अध्याय में की है। ज्ञातव्य है कि जैनों का एक विलुप्त यापनीय सम्प्रदाय अचेलता का समर्थक होते हुए भी स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्तिः की अवधारणा को स्वीकार करता है।