________________ विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताएं : 153 दर्शन और ज्ञान में क्रमभावित्व की चर्चा करते हुए पं० सुखलालजो कहते हैं कि लब्धि को अपेक्षा से केवलज्ञान और केवलदर्शन अनन्त कहे जाते हैं, किन्तु उपयोग की अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समय की है। उपयोग की अपेक्षा से किसी भी आगम ग्रन्थ में केवलदर्शन और केवलज्ञान की अनन्तता प्रतिपादित नहीं है। वस्तुतः उपयोगों का स्वभाव हो ऐसा है कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं / इसलिए केवलदर्शन और केवलज्ञान को क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिए।' दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवलो को दो उपयोग (ज्ञान और 'दर्शन ) एक साथ होते हैं / दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ गोम्मटसार में ज्ञान और दर्शन में युगपत् भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सिद्ध जीवों की सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारकत्त्व उपयोग की प्रवृत्ति क्रम से नहो होतो अर्थात् युगपत् होतो है / तत्त्वार्थभाष्य में तो यहाँ तक कहा गया है कि केवलो को दर्शन और ज्ञान-ये दोनों उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपत् होते हैं / नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जैसे सूर्य में प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं, वैसे ही केवली में दर्शन और ज्ञान भी एक साथ रहते हैं / ज्ञान और दर्शन में भेद मानकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में :: क्रमशः क्रमवाद एवं युगपत्वाद के सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए / उसो क्रम में एक अन्य मत यह भी है कि केवलो के ज्ञान और दर्शन में भेद होता हो नहीं है / चौथो शताब्दो के दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतिप्रकरण में लिखते हैं कि केवलो अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता। उनके अनुसार दर्शन और ज्ञान में क्रमवाद अथवा युगपत्वाद 1. चोथा कर्मग्रन्थ, पृष्ठ 43 2. "सिद्धाणं सिद्धगई, केवल नाणं दसणं खयियं / सम्मत्तमणाहारं, उवजोगाणक्कमपउत्तो // " -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा 731 . 3. “एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्म्यः"-तत्त्वार्थभाष्य, 1131 4. "जुगवं वट्टइ णाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥"-नियमसार, गाथा 160 5. "मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो। केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं // " -सन्मति प्रकरण, 2 / 3 (विस्तृत विवेचन हेतु गाथा 222 से 2 / 22 तक दृष्टव्य है)