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________________ विभिन्न सम्प्रदायों की दर्शन संबंधी मान्यताएं : 149 केवलोभुक्ति की अवधारणा सम्बन्धी मतभेव : श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति की तरह केवलीभुक्ति (आहार ) का प्रश्न भी विवादास्पद है। श्वेताम्बर परम्परानुसार जैसे हमारा औदारिक शरीर है वैसे ही केवली भगवन् का भी औदारिक शरीर है। इसलिए उनके लिए भी आहार करना आवश्यक है। किन्तु दिगम्बर परम्परा का कहना है कि केवली भगवन्तों में अनन्तचतुष्टय विद्यमान रहते हैं, ऐसे में यदि केवली भगवन् आहार करते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि वे क्षुधा वेदना से पीड़ित होकर आहार करते हैं, इससे तो यह फलित होता है कि अनन्तचतुष्टय गुणों में से अनन्त सुख नामक गुण का केवली में अभाव है, चारों में से एक भी गुण का जिसमें अभाव हो तो उसमें शेष तीन गुणों का भी अभाव मानना चाहिए, क्योंकि अनन्तचतुष्टय गुणों का परस्पर में अविनाभाव है। एक के अभाव में दूसरे का सद्भाव नहीं रह सकता है। __केवलीभुक्ति के प्रश्न पर यदि हम ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो श्वेताम्बर परम्परा मान्य प्राचीन आगम समवायांगसूत्र में स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि केवली भगवन् का आहार एवं निहार चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता है।' भगवतीसूत्र में भगवान महावीर को विकटभोजो (दिन में हो भोजन करने वाला ) कहा गया है। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्राचीन ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि ( ६ठों शताब्दी ) में भी एकेन्द्रिय से लेकर सयोगी केवली तक सभी जीवों को आहारक माना है। इससे यह फलित होता है कि ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी तक जैन परम्परा में कहीं भी केवलीभुक्ति का निषेध नहीं था। केवलीभुक्ति का सर्वप्रथम निषेध दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द के बोधपाहुड में पाया जाता है / बोधः. पाहुड में कुन्दकुन्द ने केवली को जरा, व्याधि, दुःख, आहार, निहार 1. "पच्छन्ने आहार-नीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा" -समवायांगसूत्र, 34 / 219 2. "तेणं कालेणं तेण समयेणं समणे भगवं महावीरे वियडभोई यावि होत्था।" -व्याख्याप्रनप्तिसूत्र, 2/1/21 3. "आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगी केवल्यान्तानि।" -सर्वार्थसिद्धि, 18
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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