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________________ 148 : जैनधर्म के सम्प्रदाय अनुमति दी है क्योंकि वस्त्र के अभाव में समग्र चारित्र का हो निषेध हो जायेगा, जबकि वस्त्र धारण करने में तो अल्प दोष ही लगेगा। संयम के उपकार के लिए ग्रहण किये गए वस्त्र भी संयमोपकरण ही माने जायेंगे, परिग्रह नहीं। आगम में निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ है यदि यह माना जाए कि उनके वस्त्र परिग्रह हैं तो फिर उनके लिए निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। यदि उपकरण ही परिग्रह हो तो - फिर कोई साधु भी निग्रन्थ नहीं कहला सकता। कोई व्यक्ति वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित है, किन्तु यदि उसमें उनके प्रति ममत्व का अभाव है तो वह अपरिग्रही कहलायेगा। इसके विपरीत एक व्यक्ति नग्न है, किन्तु उसमें ममत्व और मूर्छा का भाव है तो वह परिग्रही कहलाएगा। साध्वी वस्त्र इसलिए धारण नहीं करती है कि उनके प्रति उसका कोई ममत्व होता है, किन्तु वह उसे जिन-आज्ञा समझकर ही धारण करती है। वस्त्र उसके लिए उसी प्रकार परिग्रह नहीं हैं जिस प्रकार ध्यानस्थ नग्न मुनि के शरीर पर डाले गये वस्त्र उसके लिए परिग्रह नहीं हैं। एक व्यक्ति जिसका अपने शरीर के प्रति भी ममत्व भाव है तो वह परिग्रही कहलायेगा और वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा जबकि इसके विपरीत वह व्यक्ति जिसमें ममत्व का अभाव है, वह शरीर धारण करते हुए भी अपरिग्रही कहलाएगा। यही स्थिति वस्त्रों के सन्दर्भ में भी जाननी चाहिए, विशेषकर स्त्री के लिए। जिस प्रकार जन्तुओं से व्याप्त इस लोक में कषाय के अभाव में मुनि के द्वारा हिंसा होते हुए भी वह हिंसक नहीं माना जाता है उसी प्रकार वस्त्र के सद्भाव में भी साध्वी परिग्रहो नहीं मानी जा सकती। यदि हिंसा और अहिंसा को व्याख्या बाह्य घटनाओं पर नहीं, अपितु व्यक्ति के मनोभावों अर्थात् कषायों पर निर्भर है तो फिर परिग्रह के लिये भी यही कसौटी माननी होगी। यदि हिंसा की घटना घटित होने पर भी मुनि अहिंसक हो रहता है तो फिर वस्त्र के होते हुए भी मूर्छा के अभाव में साध्वी अपरिग्रहो क्यों नहीं कहलाएगी? जब यह कहा जाता है कि अचेलकत्व उत्सर्गमार्ग है तो यह कथन तब तक सिद्ध नहीं होगा जब तक कि अपवाद मार्ग नहीं होगा। अपवाद मार्ग के अभाव में उत्सर्ग मार्ग उत्सर्गमार्ग नहीं रह पायेगा। यदि अचेलता उत्सर्ग: मार्ग है तो सचेलता अपवाद मार्ग है। दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई नहीं। इस समग्र चर्चा के पश्चात् हम इतना ही कहना चाहेंगे कि हमारे मतानुसार पुरुष के समान ही स्त्री की भी मुक्ति मानने में कोई कठिनाई नहीं है।
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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